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गृहस्थाश्रम
सके ? क्या आप ऐसी योजना करेंगे ? क्या कोई दूसरा ऐसा करेगा ! यह विचार पुनः पुनः हृदयमें आया करता है । इसलिये साधारण विवेकी जिस विचारको हवाई समझते हैं, तथा जिस वस्तु और जिस पदकी प्राप्ति आज राज्यश्री चक्रवर्त्ती विक्टोरिया को भी दुर्लभ और सर्वथा असंभव है, उन विचारोंकी, उस वस्तुकी और उस पदकी ओर सम्पूर्ण इच्छा होनेके कारण यह लिखा है । यदि इससे कुछ लेशमात्र भी प्रतिकूल हो तो उस पदाभिलाषी पुरुष के चरित्रको बड़ा कलंक लगता अवश्य मालूम होता है कि राजचन्द्रजी केवल एक अध्यात्मज्ञानी ही नहीं,
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है। इससे इतना तो
परन्तु एक महान् सुधारक भी थे।
गृहस्थाश्रममें उदासीनभाव
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यहाँ यह बात खास लक्ष्यमें रखने योग्य है कि राजचन्द्रजीके गृहस्थाश्रम में पदार्पण करनेपर भी, उन्हें स्त्री आदि पदार्थ ज़रा भी आकर्षित नहीं कर सके । उनकी अभी भी यही मान्यता रही कि "" कुटुम्बरूपी काजलकी कोठड़ी में निवास करनेसे संसार बढ़ता है । उसका कितना भी सुधार करो तो भी एकांतवाससे जितना संसारका क्षय हो सकता है, उसका सौंवा भाग भी उस काजलके घरमें रहने से नहीं हो सकता; क्योंकि वह कषायका निमित्त है और अनादिकालसे मोहके रहने का पर्वत है । अतएव श्रीमद् राजचन्द्र विरक्तभावसे, उदासीनभावसे, नववधूर्मे रागद्वेषरहित होकर, ' सामान्य प्रीति - अप्रीति ' पूर्वक, पूर्वोपार्जित कमका भोग समझकर ही अपना गृहस्थाश्रम चलाते हैं। अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं-"" यदि दुखिया मनुष्यों का प्रदर्शन किया जाय तो निश्चयसे मैं उनके सबसे अग्रभागमें आ सकता हूँ।' मेरे इन वचनों को पढ़कर कोई विचार में पड़कर भिन्न भिन्न कल्पनायें न करने लग जाय, अथवा इसे मेरा भ्रम न मान बैठे, इसलिए इसका समाधान यहीं संक्षेप में लिखे देता हूँ ।
तुम मुझे स्त्रीसंबंधी दुःख नहीं मानना, लक्ष्मीसंबंधी दुःख नहीं मानना, पुत्रसंबंधी दुःख नहीं मानना, कीर्त्तिसंबंधी दुःख नहीं मानना, भयसंबंधी दुःख नहीं मानना, शरीरसंबंधी दुःख नहीं मानना, अथवा अन्य सर्व वस्तुसंबंधी दुःख नहीं मानना; मुझे किसी दूसरी ही तरहका दुःख है । वह दुःख वातका नहीं, कफका नहीं, पित्तका नहीं, शरीरका नहीं, वचनका नहीं, मनका नहीं, अथवा गिनो तो इन सभीका है, और न गिनो तो एकका भी नहीं । परन्तु मेरी विज्ञप्ति उस दुःखको न गिनने के लिए ही है, क्योंकि इसमें कुछ और ही मर्म अन्तर्हित है ।
राजचन्द्र
इतना तो तुम जरूर मानना कि मैं बिना दिवानापनेके यह कलम चला रहा हूँ । नामसे कहा जानेवाला ववाणीआ नामके एक छोटेसे गाँवका रहनेवाला, लक्ष्मी में साधारण होनेपर भी आर्यरूपसे माना जानेवाला दशाश्रीमाली वैश्यका पुत्र गिना जाता हूँ। मैंने इस देहमें मुख्यरूपसे दो भव किये हैं, गौणका कुछ हिसाब नहीं ।
छुटपनकी समझमें कौन जाने कहाँसे ये बड़ी बड़ी कल्पनायें आया करती थीं । सुखकी अभिलाषा भी कुछ कम न थी, और सुखमें भी महल, बाग, बगीचे, स्त्री तथा रागरंगों के भी कुछ कुछ ही मनोरथ थे, किंतु सबसे बड़ी कल्पना तो इस बातकी थी कि यह सब क्या है ? इस कल्पनाका एक बार तो ऐसा फल निकला कि न पुनर्जन्म है, न पाप है, और न पुण्य है । सुखसे रहना और
संसारका भोग करना, बस यही कृतकृत्यता है । इससे दूसरी झंझटों में न पड़कर धर्मकी वासनायें भी निकाल डालीं । किसी भी धर्मके लिए थोड़ा बहुत भी मान अथवा श्रद्धाभाव न रहा, किंतु थोड़ा समय बीतने के बाद इसमें से कुछ और ही हो गया । जैसा होनेकी मैंने कल्पना भी न की थी, तथा जिसके लिए मेरे विचार में आनेवाला मेरा कोई प्रयत्न भी न था, तो भी अचानक फेरफार हुआ। कुछ दूसरा ही
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