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राजचन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय
जिसने जैनमतको जाना और सेवन किया, वह केवल वीतरागी और सर्वश हो जाता है। इसके प्रवर्तक कैसे पवित्र पुरुष थे ! इसके सिद्धांत कैसे अखण्ड, सम्पूर्ण और दयामय है । इसमें दूषण तो कोई है ही नहीं! सर्वथा निदोष तो केवल जैनदर्शन है ! ऐसा एक भी तस्व नहीं कि जो जैनदर्शनमें न हो। एक विषयको अनंत भेदोसे परिपूर्ण कहनेवाला जैनदर्शन ही है। इसके समान प्रयोजनभूत तत्र अन्यत्र कहीं भी नहीं है। जैसे एक देहमें दो आत्मायें नहीं होतीं, उसी तरह समस्त सृष्टिमें दो जैन अर्थात् जैनके तुल्य दूसरा कोई दर्शन नहीं । ऐसा कहनेका कारण क्या ! केवल उसकी परिपूर्णता, वीतरागिता, सत्यता, और जगदहितैषिता।" जैनधर्मका तुलनात्मक अभ्यास
आगे चलकर तो राजचन्द्रजीने जैनदर्शन, वेदान्त, रामानुज, सांख्य आदि दर्शनोंका तुलनात्मक अभ्यास किया, और इसी निष्कर्षको मान्य रक्खा कि 'आत्मकल्याणका जैसा निर्धारण श्रीवर्धमानस्वामी आदिने किया है, वैसा दूसरे सम्प्रदायोंमें नहीं है।' वे लिखते है:-" वेदान्त आदि दर्शनका लक्ष भी आत्मशानकी और सम्पूर्ण मोक्षकी ओर जाता हुआ देखनेमें आता है, परन्तु उसमें सम्पूर्णतया उसका यथायोग्य निर्धारण मालूम नहीं होता-अंशसे ही मालूम होता है, और कुछ कुछ उसका भी पयार्यान्तर मालूम होता है। यद्यपि वेदान्तमें जगह जगह आत्मचर्याका विवेचन किया गया है, परन्तु वह चर्या स्पष्टरूपसे अविरुद्ध है, ऐसा अभीतक मालूम नहीं हो सका । यह भी होना संभव है कि कदाचित् विचारके किसी उदय-भेदसे वेदान्तका आशय भिन्नरूपसे समझमें आता हो, और उससे विरोध मालूम होता हो-ऐसी आशंका भी फिर फिरसे चित्त की है, विशेष अतिविशेष परिणमाकर उसे अविरोधी देखनेके लिये विचार किया गया है। फिर भी ऐसा मालूम होता है कि वेदान्तमै जिस प्रकारसे आत्मस्वरूप कहा है, उस प्रकारसे वेदान्त सर्वथा अविरोधभावको प्राप्त नहीं हो सकता । क्योंकि जिस तरह वह कहता है, आत्मस्वरूप उसी तरह नहीं-उसमें कोई बदा भेद देखने में आता है। और उस उस प्रकारसे सांख्य आदि दर्शनों में भी भेद देखा जाता है।
मात्र एक श्रीजिनने जो आत्मस्वरूप कहा है, वह विशेषातिविशेष अविरोधी देखने में आता है-उस प्रकारसे वेदन करनेमें आता है। जिनभगवान्का कहा हुआ आत्मस्वरूप सम्पूर्णतया अविरोधी ही है, ऐसा जो नहीं कहा जाता उसका हेतु केवल इतना ही है कि अभी सम्पूर्णतया आत्मावस्था प्रगट नहीं हुई। इस कारण जो अवस्था अप्रगट है, उस अवस्थाका वर्तमानमें अनुमान करते हैं, जिससे उस अनुमानको उसपर अत्यन्त भार न देने योग्य मानकर वह विशेषातिविशेष अविरोधी है, ऐसा कहा है-वह सम्पूर्ण अविरोधी होने योग्य है, ऐसा लगता है।
सम्पूर्ण आत्मस्वरूप किसी भी पुरुषमें तो प्रगट होना चाहिये-इस प्रकार आत्मामै निश्चय प्रतीति-भाव आता है। और वह केसे पुरुषमें प्रगट होना चाहिये, यह विचार करनेसे वह जिनभगवान् जैसे पुरुषको प्रगट होना चाहिये, यह स्पष्ट मालूम होता है। इस सृष्टिमंडलमें यदि किसी भी सम्पूर्ण मात्मस्वरूप प्रगट होने योग्य हो तो वह सर्वप्रथम श्रीवर्धमानस्वामीमें प्रगट होने योग्य लगता है।" मतमतांतरकी आवाजसे आँखों में आँस
यह सब होते हुए भी, जैनशासनके अनुयायियों को देखकर राजचन्द्रजीका कोमल हृदय दयासे उमद आता था, और उनकी आँखोंसे टपटप अश्रुधारा बहने लगती थी। प्रचलित मतमतांतरोंकी बात सुनकर उने 'मृत्युसे भी अधिक वेदना होती थी।' राजचन्द्र कहते थे.-"महावीर भगवानके शासनमें जो बहुतसे मतमतांतर पर गये है, उसका मुख्य कारण यही है कि तत्वज्ञानकी ओरसे उपासकवर्गका लक्ष फिर गया है। बीस लाख जैन लोगों में दो हजार पुरुष भी मुश्किलसे ही नवतस्वको पढ़ना जानते
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