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गाथा ३
वे सभी पदार्थ अपने - अपने द्रव्य में अन्तर्मग्न रहनेवाले अपने अनन्त धर्मों के चक्र को चुम्बन करते हैं, स्पर्श करते हैं; तथापि वे परस्पर एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते । अत्यन्त निकट एक क्षेत्रावगाहरूप से तिष्ठ रहे हैं; तथापि वे सदाकाल अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते हैं । पररूप परिणमन न करने से उनकी अनन्त व्यक्तिता नष्ट नहीं होती, इसलिए वे टंकोत्कीर्ण की भांति सदा स्थित रहते हैं और समस्त विरुद्ध कार्य व अविरुद्ध कार्य की हेतुता से विश्व को सदा टिकाये रखते हैं, विश्व का उपकार करते हैं ।
इसप्रकार सर्वपदार्थों का भिन्न-भिन्न एकत्व प्रतिष्ठित हो जाने पर एकत्व सिद्ध हो जाने पर जीव नामक समय को बंध की कथा से ही विसंवाद की आपत्ति आती है । तात्पर्य यह है कि जब सभी पदार्थ परस्पर भिन्न ही हैं तो फिर यह बन्धन की बात जीव के साथ ही क्यों?
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जब बंध की बात ही नहीं टिकती तो फिर बंध के आधार पर कहा गया पुद्गल प्रदेशों में स्थित होना भी कैसे टिकेगा ? तथा उसके आधार पर होनेवाला परसमयपना भी नहीं टिक सकता। जब परसमयपना नहीं रहेगा तो फिर उसके आधार पर किया गया स्वसमयपरसमय का विभाग भी कैसे टिकेगा ? जब यह विभाग ही नहीं रहा तो फिर समय (जीव ) के एकत्व होना ही सिद्ध हुआ और यही श्रेयस्कर भी है ।"
देखो, दूसरी गाथा में 'समय' शब्द का अर्थ जीवद्रव्य लिया था और यहाँ छहों द्रव्य लिया जा रहा है । वहाँ जो एक ही समय में गमन भी करे और ज्ञान भी करे, उसे समय कहते हैं; इस व्याख्या के अनुसार समय शब्द का अर्थ जीव किया था और यहाँ जो अपने गुण- -पर्यायों को प्राप्त हो, उसे समय कहते हैं, इस व्याख्या के अनुसार समय शब्द का अर्थ छहों द्रव्य लिया है ।