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होय छे. जो आत्मा अने कर्म नो अाधार प्राधेय भाव सिद्ध थयो तो अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र अने अनंत वीर्य ए चार अनंत चतुष्टय वाला अने परमेष्ठि एवा सिद्ध भगवन्तो कर्मो केम ग्रहण करता नथी ? मानो के दुःखनी इच्छा न होवा थी अशुभ कर्मो ग्रहण न करे परन्तु सुखनी तो इच्छा छ तो शुभ कर्मो केम ग्रहण न करे ? अथवा शुभ कर्मो ग्रहण करतां तेमने कोण रोकनार छ ? तेनो उत्तर आगल नी गाथा मां जरगावाशे. मूलम्सत्य यतस्तैजसकामण ख्य-शरीर योगस्य विनाश मावः । सुकर्मणांतेन गृहीत्ययोगा-ज्ज्योतिश्चिदानन्दमरैश्च तृप्त्या: ३ सुखासुख प्रापरण हेतु काल-प्रयोक्त्र नावादथ निष्क्रियत्वात् । यद्वाप्यनन्तानि सुखानितेषां, कर्माणिसान्तानि भवन्त्यमूनि ४ इतीव तत्सौख्यं भास्य कर्म. हेतर्भवेन्नो यदतुल्यमानात् । इत्यादि कहैतुभिरेवसिद्धा-त्मानोनकर्मारिणहिलांति नित्याः ५
गाथार्थ-तारु कहेवु सत्य छे, परन्तु तैजस कार्मण नामना शरीर नो विनाश थवाथी शुभ कर्मोना ग्रहण ना सम्बन्ध नो अभाव छे. ज्योति ज्ञान अने अानन्द ना समूह थी तृप्ति छे. सुख अने दुःख ना हेतु भूतकाल नी प्रेरणा करनार नथी. सिद्धो निष्क्रिय छे. सिद्धोनु