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विवेचन - हे साधु ! या मोक्ष नो मार्ग तुं बराबर सांभल. आ मोक्ष नो मार्ग मारी मति - कल्पना थी नथी परन्तु गुरू ना उपदेश थी कई जाणी ने कहुं छं. तेमज मोक्ष तो मार्ग जैन ग्रागम तथा वेदान्त नार सार भूत ने मोक्ष मां लई जवा माटे समर्थ छे.
मूलम्:
मुक्तिं समिच्छुर्मनुजः पुरस्तात् करोतु चित्तेस विचारमेवम् । आत्माह्ययं योगिभिरेषशुद्धो, बुद्धश्वमुक्तश्च निरञ्जनश्च ||२७| इत्युच्यते तहि तु केन बद्धो, मुक्तस्त्वयं बद्धयत एषकस्मात् । ज्ञातं भ्रमेणेतियमूचुराद्याः, कर्मेति मोहेतिभ्रमेत्यविद्या ||२८|| कर्तेति मायेति गुणेति दैवं, मिथ्येति चाऽज्ञानमितीतिशब्दः । सद्योगिनोमून्निगदन्तितज्ज्ञा, भ्रमं ह्यनेनैवनिबद्धात्मा |२६| गाथार्थ::- मुक्ति नी इच्छा वालो मनुष्य पहेला मन मां ए विचार करे के योगिए श्र आत्मा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त ग्रने निरंजन कह्यो छे तो मुक्त एवो आत्मा कोनाथी बंधायो छे अने कया कारण थी बंधायो छे. आ विचार करते छते जगाय छे के भ्रम थी बंधायेलो छे. महात्मा पुरुषो प्राने कर्म, मोह, भ्रम, अविद्या, कर्त्ता, माया, गुण, दैव, मिथ्या अने अज्ञान विगेरे शब्दो कहे छे, एटला माठे तत्त्व ज्ञानी एवा श्रेष्ठ योगी कर्मादि शब्दो ने भ्रम कहे छे. ए भ्रम बड़ेज आत्मा बंधायो छे..