Book Title: Jain Tattva Sar Sangraha Satik
Author(s): Ratnashekharsuri
Publisher: Ranjanvijayji Jain Pustakalay
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( ३७० ) जेमके स्त्री, पुत्र, मित्र, माता, पिता, द्रव्य अने शरीर
आदि सहवर्ती वस्तुप्रो मां साथे न जनार अने पोतानी न होवा छतां 'पा मारू छे' एवो भ्रम थाय छे. अथवा संसार, शरीर अने बीजी मनोहर वस्तुनो मां राग करवो अने दुष्ट मनोवृत्ति राखवी ए मिथ्या ज्ञान छे. मन मांथी रागद्वेष काढी नाखी समता राखवी एटले वीतरागता नो अनुभव करवो ए सम्यक् ज्ञान छे. ए ऊपर नुं शुक नुं दृष्टान्त जाणवु:-पोपट ने पकड़वा माठे झाड़ ऊपर चक्र गोठववा मां आवे छे. ते चक्र नी कणिका ऊपर एक कारेलु मूके छे. ते कारेलुं पोतानुं लक्ष्य छे. एम भ्रम थी त्यां प्रावी बेसे छे. शुक ना बेसवाथी चक्र भमवा मांडे छे. त्यारे शुक कोइये पकड़ेल नहीं छतां भ्रम थी 'मने कोइये पकड्यो छे अथवा पाश मां नाख्यो छे' एम मानी लई चक्र नी साथे पोते पण भमवा मांडे छे. एटले शंका राख्या वगर ऊड़ी जाय तो मुक्त थाय छे.
वांदरा पकडवा माटे पण चणानुं भरेलुं वासण मकवामां आवे छे. त्यां चणा खावा माटे वांदरो आवे छे अने वासण मां हाथ नाखी चणानी मूठी वालवा जाय छे पण वासण नुं मुख सांकडं होवाथी मूठी वालेलो हाथ निकलतो नथी. त्यारे पोताने कोइये पकड़ी लीधो छ एम

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