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गाथार्थ:-ज्यारे आ आत्मा भ्रम रहित थाय छे त्यारे ते सर्वत्र ममत्व रहित थाय छे. घणुं शुं कहिये ? ए योगी मन, शरीर, सुख, दुःख, ज्ञान अने विचार शून्य थाय छे. विवेचन:-ज्यारे कर्म, क्रिया अने भ्रान्ति रहित थाय छे त्यारे ते योगी सर्व बाजू थी ममत्व रहित थाय छे. वधारे शुं कहिये? अने ममता रहित थवा थी ते योगी मन, वचन, काया अने विचार शून्य थाय छे, एटले तेने मन,वचन, सुख, दुःख, ज्ञान के विचार संबंधी कई पण विचार आवता नथी. मूलम्न पुण्यपापे भवतोऽस्य मुक्तितो,मम क्रियेयं मम चैष कालः । सङ्गोममाऽयंसुकृतंममेद-मित्याधभिवान्मनसोविनिर्जयात् ।३४ गाथार्थः-भ्रम रहित थवाथी योगी ने पुण्य-पाप होतां नथी; तथा 'पा मारी क्रिया, आ मारो समय, आ मारो सहायक अने प्रा मारू पुण्य' एम भेद रहित थाय छे. विवेचन:-भ्रम रहित थवाथी आ योगी ने शं लाभ थाय छे ते जणावतां कहे छे के ज्यारे योगी भ्रान्ति रहित थाय छे त्यारे तेने पुण्य अने पाप होतां नथी. तेमज 'पा मारी क्रिया छे, आ मारो समय छे, या मारो सहायक छ अने आ मारू पुण्य छे' आवा प्रकार नो भेद दूर थाय छे.