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मूलम् - चेद् वक्ष्यसि ब्रह्मगतःस्वभावो-ऽयमीदृशःसक्रियनिष्क्रियादिः । कर्तुस्त्वनेकैश्च तदास्वभाव-रनित्यतापोह भवेत्कदाचित्।३० द्वषोऽपि रागोऽपि दृशापि वीक्षा,नित्यंतदेवास्ति यदेकरूपम्। आकाशवव्याप्तिरियहियत्र,वाक्येनपञ्चावयवेनक्लुप्ता।३१ गाथार्थ :- जो सक्रियत्व अने निष्क्रियत्वादि रूप प्रावा प्रकार नो ब्रह्म नो स्वभाव कहे शो तो ब्रह्म ना अनेक स्वभावो थशे अने क्वचित् अनित्यादि पण थशे-अनित्य थवा थी द्वष परण थाय, राग पण थाय अने दर्शन पण थाय. जो नित्य होय तो एक स्वभाव छ तथा एमां पंचावयव वाक्य थी आकाश नी जेम व्याप्ति घटे छे.
विवेचन:- ब्रह्मवादियो नो एवो मत छे के ब्रह्म ना बे स्वभाव जाणवा-एक सक्रियत्व नो अने एक निष्क्रियत्व मो. तेना प्रत्युत्तर मां जणाववानु के जो तमो ब्रह्म ना सक्रियत्व अने निष्क्रियत्व एवा बे प्रकार ना स्वभाव गणशो तो ते जगत कर्ता ना ब्रह्म ना अनेक प्रकार ना स्वभावो मानवा पड़शे अने अनेक प्रकार ना स्वभावो मानवाथी क्वचित् अनित्यत्वादि स्वभावो पण मानवा पड़शे. अने अनित्यत्व मानवाथी क्वचित् राग पण थाय, क्वचित् द्वेष पण थाय अने ब्रह्म नां दर्शन पण थाय.