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मूलम् - सत्यं यदेतन्न मनोऽस्त्यमीषां, तथापिचान्योऽन्यविबाधनोत्थम् । दुष्कर्म तूत्पद्यत एव यद्व-द्विषं निहन्त्येव यथातथाहृतम् ॥३६॥
गाथार्थ -जो के आ जीवो ने मन नथी होतं ते सत्य छ, तो पण अज्ञान के ज्ञान दशा मां खाधेलु झेर पण हरणे छे. तेम अन्योन्य पीड़ा थी उत्पन्न थयेल दुष्कर्म उत्पन्न थाय छे.
विवेचन:- मन ना बे प्रकार छे-द्रव्य मन अने भाव मन संजीपंचेन्द्रिय जीवो ने द्रव्य मन अने भाव मन एम बन्ने प्रकार नुं मन होय छे. परन्तु असंज्ञी पंचेन्द्रिय, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय अने चउरिन्द्रिय विगेरे ने द्रव्य मन नथी होतं, परन्तु भाव मन अवश्य होय छे. जगत मां केटलीक वस्तुप्रो एवी छे के माणस नी इच्छा होय के न होय तो पण तेनी असर थया वगर रहेती नथी. जेमके औषध माणस नी इच्छा होय के न होय तो पण तेने औषध नी असर थया वगर रहेती नथी. तेवीज रीते जाणतां के अजाणतां पण खाधेल झेर माणस ने हणी नाखे छे. तेम अन्योन्यनी पीड़ा थी उत्पन्न थयेल दुष्कर्म बंधाय छे अने भाव मन रहेलं होवाथी राग द्वेषादि नी असर पण थाय छे.