Book Title: Jain Tattva Sar Sangraha Satik
Author(s): Ratnashekharsuri
Publisher: Ranjanvijayji Jain Pustakalay

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Page 366
________________ ( ३५५ ) करवामां आवे तो प्रात्माज विष्णु आदि शब्दो नो अर्थ थाय छे. अर्थात् विष्णु विगेरे शब्दो ने आत्माज कहेवो जोइये. मूलम् :कथं हि वेवेष्टयथ विष्णुरात्मा,व्याप्तेरथ ब्रह्म तथैषप्रात्मा। शिवोऽपिचात्माशिवहेतुतःस्याच्छक्तित्तस्तथाऽऽत्मश्रितवीर्यमेतत् गाथार्थः-आत्मा व्यापे छे. तेथी विष्णु, शुद्ध आत्म भाव वालो आत्मा ते ब्रह्म, कल्याण करवामां कारंण भूतं आत्मा ते शिव अने आत्म आश्रित शक्ति ते शक्ति जाणवी. विवेचन:- विष्णु प्रादि अात्म वाचिक शब्दो केम बने छे ते बतावतां कहे छ के ज्यारे जीव ने लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान थाय छे त्यारे ज्ञान रूप थी प्रात्मा लोकालोक मां व्याप्त बने छे. माटे व्यापक होवा थी आत्मा विष्णु गणाय छे. परं ब्रह्म एटले शुद्ध प्रात्म भाव. आवो शुद्ध आत्म भाव वालो प्रात्मा ते ब्रह्म कहेवाय छे. शिव एटले निर्वाण जेने प्राप्त कयु छे एवो आत्मा शिव कहेवाय छे. अने आत्मा नुं अनंत वीर्य ते शक्ति. तेथी आत्मा शक्ति पण गणाय छे. इत्यं हि सर्वैरपि विष्णुमुख्यः, शब्दरसावात्मक एव बोध्यः। ततस्त्वतोमुक्तिरियनकस्मात्,प्राप्येतितत्त्वहृदितरपीक्ष्यम् ॥६।

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