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( ३५६) विवेचन-आ तपश्चर्यादि सेवा विष्णु आदि थी नथी प्रवृति, परन्तु आ सेवा विष्णु आदि नुं ध्यान करनार योगी पुरुषो थी प्रवृत्ति छे. हवे ए प्रश्न थाय छे के जो विष्णु आदि नुं ध्यान करनार योगी पुरुषो थी आ सेवा प्रवृत्ति होय तो ए योगी पुरुषो ने पण क्याथी मली ? योगी पुरुषो ने आ सेवा अध्यात्म योग थी मली छे. तमो जो अध्यातम योग थी या मल्या नी वात करो छो तो ए अध्यातम योग नो प्रणेता कोण छ ? निरंजन अने निष्क्रिय एवा विष्णु विगेरे तो प्रा योग ना प्रणेता कहेवा योग्य नथी. तो आ अध्यात्म योग क्याथी प्रगट्यो? तो नक्की थाय छे के प्रा अध्यात्म योग अध्यात्मवादीग्रोए आत्मज्ञान थीज जाण्यो छे बीजा कोई थी जाण्यो नथी. वली इन्द्रिय विना ना निरंजन एटले निर्लेप, क्रिया रहित अने एक स्वरूप एवा विष्णु आदि थी पण प्रगट्यो नथी. मूलम् - स्वादात्मनोयोऽवगमो बभूव,भावात्समाख्याद्गतरागरोषात् । अपूर्वलाभान्निखिलार्थदृष्टे-रध्यात्मयोगःस्वतएवसिद्धः ॥१३॥ गाथार्थ:-पोताना प्रात्मा थी, समभाव थी, राग-द्वेष नष्ट थवाथी, अपूर्व आत्मलाभ थी अने सर्व द्रव्य ना यथार्थ दर्शन थी जे ज्ञान थाय छे तेज अध्यात्म योग पोतानी मेलेज सिद्ध थयेलो छे.