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( २०१) ॥ अथ द्वादशोधिकारः ॥ सुख-दुःख नु कारण कर्म,भाग्य स्वभावादि नाम वडे कर्म नुप्रतिपादन.
मूलम्पृच्छामिपूज्यानप्रणयादिदानी, जीवस्तुकर्मारिणशुभाशुभानि । भुङ्कतेसुखैषीकिमुदुःखितःसं-स्तदाऽस्तिकश्चिन्ननुकर्मनोदकः।१। गाथार्थ- हे पूज्यो, हुं विनयपूर्वक पूर्छ, छं के जो सुखाभिलाषी जीव शुभाशुभ कर्मो भोगवे छे तो दुःखी केम थाय छ ? कर्म नो प्रेरक कोण ? विवेचन :-प्रश्नकार ने आ जीव सुख नो अभिलाषी अने दुःख नो द्वेषी होवा छतां दुःख ना कारण भूत अशुभ कर्मो केम भोगवे छे, आवो संशय थवा थी पूछे के हे पूज्यो ! हुं विनय पूर्वक आपने प्रश्न पूछं, छ, के जीव सुख नो अभिलाषी होवा छतां शुभा शुभ कर्मो भोगवे छे तो जीव दुःखीं केम थाय छे ? अने ते कर्मो नो प्रेरक कोण ? कर्मो नो प्रेरक कोई अवश्य होवो जोइये. मूलम:विधिग्रहो वा परमेश्वरो वा, कायमोवाभगवानिहाऽस्तु । प्रणोदकः कर्मगरणस्ययेन,दुःखंसुखं वा परिभोज्यतेजगत् ॥२॥ गाथार्थः-श्रा संसार मां विधाता, ग्रहो, परमेश्वर, जगत