________________
( २६५ )
मूलम्:हेतोरतः सुष्ठु विधाय चित्तं, विचारयेदं स्वविकल्पमुक्तः । ग्राह्य यदेवाऽस्तिनणांनिजःखै-स्तदेवगृह्णन्तिहितानिखानि । गाथार्थः आ कारण थी चित्त ने स्वस्थ करीने पोताना तर्क रहित थयो छतो आ विचार के मनुष्योनी पोतानी इन्द्रियो वड़े जे ग्रहण करवा योग्य होय तेज ग्रहण कराय छे. विवेवनः तेज वस्तुनी पुष्टि करतां जणावे छे के ज्यां सुधी चित्त बीजा विकल्पो छोड़ी ने स्थिर बनतुं नथी त्यां सुधी साची विचारणा थई शकती नथी. माटे तुं प्रथम सर्व बीजा विकल्पो छोड़ी ने मन स्थिर करीने विचार कर तो जरूर मालूम पड़शे के मनुष्यो तो पोतानी इन्द्रियो वड़े ग्रहण करी शकाय तेटलीज वस्तुप्रो ग्रहण करी शके छे परन्तु इन्द्रियो ना विषय नी बहार नी वस्तुप्रो इन्द्रियो ग्रहण करी शकती नथी, एम सिद्ध थाय छे. मूलम्ज्ञानं परोक्षं हियदिन्द्रियाणां, तज्ज्ञायतेमङ क्षु परोपदेशात् । शस्तंतथाऽशस्तमिदंसमस्तं, विस्तारसंक्षेपतईक्ष्यतेऽन्यतः।२८ गाथार्थ-: जे ज्ञान इन्द्रियो ने परोक्ष होय ते परोपदेश थी शीघ्र जणाय छे. श्रेष्ठ तथा खराब आ समस्त विस्तार थी अथवा संक्षेप थी बीजा द्वारा जणाय छे.