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( २६७ )
॥ अथ सप्तदशोऽधिकारः ॥
प्रभु प्रतिमा पूजन थी पुण्य नो संभव:
मूलम्:
श्रथेत्यसौनास्तिकप्राख्यदास्तिकं, यदुच्यतेभोःप्रतिमार्चनाद्भवेत् । पुण्यं न तत्सम्भवतीषदार्या, प्रजीवतः का फलसिद्धिरस्ति ? । १ गाथार्थ :-- श्र नास्तिक प्रास्तिक ने कहे छे के हे आर्यो ! जे कहेवाय छे के प्रतिमा पूजन थी पुण्य थाय छे ते संभ नथी, कारण के अजीव थी कया फल नी सिद्धि थाय ? विवेचनः घणा ना मन मां आवो संशय थाय छे के प्रतिमा पूजन थी शुं फल थाय ? तेवोज प्रश्न नास्तिक ना हृदय मां परण थवाथी नास्तिक प्रास्तिक ने प्रश्न करे छे के तमो कहो छो के प्रतिमा पूजन थी पुण्य थाय छे; परन्तु प्रतिमा पूजन थी पुण्य उपार्जन थतुं नथी कारण के प्रतिमा अजीव छे, अने अजीव एटले जड़ एवी प्रतिमा नुं पूजन करनार ने केवी रीते फल आपे ? अर्थात् श्रजीव थी कई सिद्धि थाय ?
मूल
नैवं स्वचित्ते परिचिन्तनीय-मजीव सेवाकररणाद्भवेत् किम? | पद्यादृशाकारनिरीक्षणं स्यात्प्रायो मनस्तद्गतधर्मचिन्ति ॥२