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( २८३ ) गाथार्थ:--सिद्धो अशरीरी, अरूपी, मुक्त्ताशना, द्वेषरहित, वीतराग, निरंजन, निष्क्रिय, गतस्पृह, अस्पर्धक, निर्बन्धन, निसंधिवाला, केवलदर्शी अने आनन्द पूर्ण छे. तो साधुअोए अनुक्रमे शरीर ममत्व रहित, शरीर सत्कारादि रहित, आहार त्याग वाला, सर्व जीवो प्रत्ये मैत्री भाव वाला, बंधुप्रो ना बंधन रहित, प्रीति अने विलेपन रहित, प्रारंभ समारंभ थी शून्य, आशा रहित, वाद विवाद रहित, स्वेच्छाए विहार करनारा, परस्पर मैत्री थी रहित, सर्व जगत ने अनित्य जोनारा, शुद्ध भाव वाला अने समता वाला थवा प्रयत्न करवो जोइये. विवेचनः- सिद्ध भगवंतो ना गुणो प्राप्त करवा साधुग्रोए शुं करवं जोइये ते बतावे छे के सिद्ध भगवंतो शरीर रहित छे, तो साधुअोए 'पा शरीर मारू नथी' एम शरीर ऊपर थी ममत्व घटाऽवं जोइये. सिद्धो अरूपी छे तो साधुनोए स्नान नो त्याग अने शरीर प्रत्ये नो प्रेम एम शरीर संस्कार अने सत्कार नो त्याग करवो जोइये. सिद्धो आहार थी रहित छे, तो साधुओए उपवास, आयंबिल द्वारा आहार त्याग करवानो प्रयत्न करवो जोइये. सिद्धो द्वेष रहित छ, तो साधुअोए प्राणी मात्र प्रत्ये मैत्री भाव धारण करवो जोइये. सिद्धो वीतराग छे, तो साधुअोए स्वजन, परिवार, बंधु मादि ना बंधन रहित थवं जोइये. सिद्धो निरंजन छ,