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( २१४ ) मूलम्:एवंतुकालोगदितोऽस्तिकर्मणो, वातादिवस्तुत्रितयस्यचाऽपि । परंयदाकश्चनशान्युपायः,उग्रोभवेत्ता पियातिचान्तरात् ।२१ किञ्चित्कदाचित्स्वदनंयदात्मनः,वातादिकृत्तत्क्षरणतोऽपिजायते कर्मारिणकानीह तथात्मनोऽस्यो-ग्रारिणक्षणात्तत्फलदान्यनीरकम् । गाथार्थ:- वातादि त्रण वस्तु नी जेम कर्म नो पण काल कहेलो छे. परन्तु जो कोई शान्ति नो उपाय उग्र होय तो पहेलां पण शान्त थाय छे. क्वचित् पोते करेल भोजन तत्काल पवनादि ने उत्पन्न करे छे तेम केटलांक कमों जोव ने जल्दी फल देनार बने छे. विवेचनः-वात, पित्त अने कफ नी उत्पत्ति, स्थिति अने शान्ति माटे कालादि ज कारण भूत छे. कोई वखत वायु, पित्त अने कफ नो उग्र उपाय करवाथी तरतज वायु आदि शान्त थई जाय छे. तेम कोई वखत कर्मों पण तेवा प्रकार ना अध्यवसाय ना योगे उदीरणा आदि द्वारा कर्म ना उदयकाल पहेलां पण शान्त थई जाय छे, अथवा नाश पण पामी जाय छे. कोई वखत भोजन करनारने वायु आदि नो तत्काल प्रकोप थई जाय छे तेम उग्र कर्मो जीव ने तत्काल फल दाता पण बने छे.
यदा पुनः स्त्री पुरुषं भजन्ती, यदृच्छया स्वार्थपरा विनेरकम् । विपाककालेपरिपूर्णतांगते,प्रसूयमानासुखिताथदुःखिता ॥२३