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लम्:कर्णेन्द्रियबाह्यतयापि नैषां,सत्ताऽस्ति तन्नेन्द्रियगोचरः सन् । केचित्तु संयोगभवा हि शब्दाः,सन्त्येव ते तद्विरहो न प्रायः ।। यथाहि गोशृङ्गनरेन्द्रकजा-वनीरुहागोपतिभूधराद्याः । संयोगजाःसन्ति वियोगतश्च,शब्दा अनेकेविबुधर्विवेच्याः।१० गाथार्थः-आ शब्दो कर्णेन्द्रिय थी ग्राह्य छतां तेनी सत्ता नथी. तेथी श्रोत्रेन्द्रिय नो विषय होवा छतां सत्ता नथी. केटलाक शब्दो संयोग वाला होवा छतां तेनो प्रायः वियोग नयी. जेमके गोश्रग, नरेन्द्र केश, अवनीरुह, गोपति अने भूधर विगेरे अने केटलाक संजोग थी उत्पन्न थयेला अने वियोग पण थाय छे. ते पंडितोए स्वयं जाणवा. विवेचनः- वंध्या सुत, आकाश पुष्प, मृगतृष्णा जल, खर विषाणु विगेरे शब्दो जोके कान थी सांभली शकाय छ, परन्तु ते नामनी वस्तु जगत मां विद्यमान होती नथी. एटले इन्द्रियो थी ग्राह्य होवा छतां ते वस्तु जगत मां नथी. केटलाक शब्दो संजोग थी उत्पन्न थयेला छे परन्तु ते बे वस्तु अलग पड़ती नथी. जेमके गोशृग, नृपति केश, अवनिरुह, गोपति, भूधर, विगेरे जाणबा. केटलाक संजोग थी उत्पन्न थयेला शब्दो जूदा परण पड़ी शके छे, ते विद्वान पुरुषोए स्वयं जाणवां,