________________
( १९४)
मूलम् - सज्ञाश्चतस्रोऽप्यथवैषु मिथ्या,योगःकषायोऽविरतिश्च सन्ति । इमानिसण्यपिकर्मबन्ध-बीजान्यनन्तैस्त्वधिकोविरोधः॥४०॥
गाथार्थ:- निगोद ना जीवो मां मिथ्यात्व, योग, कषाय अने अविरति ए संज्ञाम्रो पण होय छे. ए चार कर्म बंधन नां कारणो छे. तेमां अनन्त जीवो साथे नो द्वेष पण छे, पछी शु कहेवू ? विवेचन:-जोके आहार, भय, मैथुन अने परिग्रह ए चार संज्ञाप्रो ज वधारे प्रसिद्धि मां छे, छतां अहियां ग्रंथकार श्री ए मिथ्यात्व, कषाय, अविरति अने योग ने पण संज्ञा तरीके गणेल छे. ए चारे कर्म बंधना हेतु तरीके गणेल छे, अर्थात् आत्मा आ चार हेतु मांथी कोई पण एक, बे, त्रण अथवा चारे हेतु थी कर्म बंधन करे छे. जिनेश्वर देवोए बतावेल जीवादि नवतत्त्वो प्रत्ये अरुचि तेनं नाम मिथ्यात्व, पंच महाव्रत आदि मोटा व्रतो अने स्थूल प्राणातिपात विरमण आदि पांच अनुव्रतो त्रण गुणवतो अने चार शिक्षाव्रतो विगेरे बार व्रतो आदि व्रतो ग्रहण न करवां ते अविरति. क्रोध, मान, माया अने लोभ ए चार कषाय ; अने मन, वचन, काया नी प्रवृत्ति ते योग ए चार कर्म वंधन नां मूल कारणो छे. मिथ्यात्व नां पांच प्रकार, अविरति ना बार प्रकार, कषाय ना २५