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( १८५ ) परन्त्वमी एकतर्नु श्रिता य-त्तिष्ठन्त्यनन्ताः प्रतिजन्तुविद्धाः। पृथक्पृथग्देहगृहप्रमुक्ताः, परस्परद्वषकरात्मसंस्थाः ॥२७॥ अत्यन्तसङ कीर्णनिवासलाभा-दन्योन्यसम्बद्धनिकाच्यवैराः । प्रत्येकमप्येष्वभिवर्तमान-मनन्तजीवैस्तत उग्रवैरम् ॥२८॥ गाथार्थः- हे साधु पुरुषो ! निगोद ना जीवो कया कर्म थी अति दुःखी होय छे ते तमो जणावो ? उत्तर प्रापे छे के आ बाबत ने केवली भगवंत सिवाय कोई विद्वान् पण जाणवाने समर्थ नथी. तो पण जाणवा माटे पा कर्म नो प्रकार जणावाय छे. जो अहियां निगोद ना जीवो स्थूल आश्रवो सेववाने समर्थ नथी, परन्तु प्रत्येक जन्तु ने वींधी ने एक शरीर मां अनंता जीवो रहेला छे, अलग-अलग शरीर थी रहित छे, परस्पर द्वेष ना कारण भूत तैजस कार्मण वड़े स्थिति वाला छे, अत्यन्त संकीर्ण निवास मलवा थी परस्पर बांधेल निकाचित वैर भाव वाला अने प्रत्येक ने अनंत जोवो नी साथे उग्र वैर भाव वाला छे. विवेचन:-निगोद ना जीवो कोई पण जीव नी क्यारेय पण हिंसा करता नथो, क्यारेय पण अठु बोलता नथी, क्यारेय पण चोरी करता नथी, क्यारेय पण मैथुन सेवता नथी तेमज क्यारेय पण अल्प पण परिग्रह राखता नथी; एटले मोटां पापो क्यारेय पण करता नथी. छतां कया कर्म ना योगे