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मूलम् - लोके यथा गुप्तिगहाश्रिताना-मन्योन्यसंमर्दनिपीडितानाम् । प्रत्येकमाबद्धनिकामवैर-भाजां नारणां किल कर्मबन्धः॥३१॥ भावस्त्वमीषामलमीदृशः स्या-धदेषुकश्चिम्रियतेऽपयातिवा। तदाहमासीय सुखेन भक्ष्य-मायातिकिञ्चिद्घनमंशतश्च॥३२॥ इत्यादिकं वैरमतुच्छमोहक, प्रवर्धमानं प्रतिबन्दि यत्स्यात् । तस्मादमीषामतिदुष्कृतस्या-देवंनिगोदाङ्गभतामपीक्ष्यम्॥३३॥ गाथार्थ:- जेम संसार मां अन्योन्य संमर्दन थी पीड़ा पामता अने प्रत्येक नी साथे बांधेल वैर भाव वाला कैदिनो ने खरेखर कर्म बंध होय छे. एप्रोनो एवो भाव होय छे के एमांनो कोई मनुष्य मरी जाय अथवा नासी जाय तो हं सुखे रहूं अने खावानु पण अधिक मले, ए प्रमाणे अधिक
आवा प्रकार नु वृद्धि पामतु वैर भाव प्रत्येक बंदी प्रत्ये ते अोने होय छे. तेथी कैदियो ने दुष्कर्म बंध थाय छे. तेम निगोद ना जीवो ने पण जाणी लेवु. विवेचनः-निगोद ना जीवो ने वैर भाव थी केवी रीते कर्म बंध थाय छे ते समझाववा माटे कैदीप्रोनु सुन्दर दृष्टांत बतावतां ग्रंथकार श्री फरमावे छे के जेम संसार मां एक कैदखाना मां दश समाई शके त्यां पचास भरेला होय अने दश ने जोइये तेटलो खोराक पचास जण ने अपातो होय त्यारे तेत्रो परस्पर संकड़ामरण ना कारणे पीड़ा पामता