________________
( १५३ )
परस्पर असम्बन्ध वालु बोलता एवा यवनाचार्यो नुं वचन विश्वासपात्र नथी.
कर्म थी जीव ने सुख-दुःख थाथ छे तो पण
ईश्वर ऊपर का नुआरोपण नूलम् - किहिवाच्यंशणुकिञ्चिदस्ति, ज्योतिर्मयं चिन्मयमेकरूपम् । द्रष्ट प्रजानां सुखदुःख हेतु,योगीश्वरध्येयतमस्व भावम् ।६२। गाथार्थः तो कइंक कहेवा योग्य छे ते सांभलो. प्रकाश स्वरूप, ज्ञानमय, अद्वितीय स्वरूप, एक रूप, प्रजाना सुख• दुःख ना दर्शक अने योगीश्वरो ने ध्येय रूप एवं ब्रह्म छे. विवेचन:-हवे ईश्वर जगत नो कर्त्ता अने जगत नो नाश करनार छे एवी मान्यता वाला ने जैन शास्त्रकारो प्रत्युत्तर आपे छे के तमो ईश्वर एटले ब्रह्म तेने जगत नो कर्ता अने संहारक तरीके मानो छो, परन्तु पहेलां ब्रह्म - स्वरूप के छे ते सांभलो. प्रकाश स्वरूप, ज्ञान मय, एक रूप, प्रजाना सुख दुःख ना दर्शक अने योगीश्वरो ने ध्येय रूप एवा प्रकार ना स्वरूप वालुं ब्रह्म छे. मलम् : दौर्गत्यदुःखे सुति सुखं च, प्राप्नोति तादृक्कृत कर्म योगात् । जीवो यवा त्वेष समान भावं, श्रयेत्तदागच्छतिब्रह्मभूयम् ।६३।