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( १८० ) नो गंध परस्पर अनेक प्रकारे मलेलो होवा छतां बीजी वस्तुप्रो नी साथे संकड़ामण थती नथी, तेमज जग्यानी पण संकड़ामण थती नथी. मूलम् - एवं निगोदासुमतांपरस्परा-श्लषेऽस्ति तेषामतिबाधनं सदा । तथाऽपिचाऽन्यस्यनवस्तुनोऽस्ति,संकीर्णतानवविहायसश्च।१७ गाथार्थः - ए प्रमाणे निगोद ना जीवो परस्पर मलेल होवा थी अति पीड़ा थाय छे परन्तु बीजा पदार्थो ने पीड़ा न थाय अने जग्या नी संकड़ामण पण न थाय. विवेचन:-निगोद ना जीवो एक शरीर मां अनंत रहेला होवा थी तेस्रो परस्पर जरूर अति पीड़ा पामे छे परन्तु बीजी वस्तुप्रो ने पीड़ा थती नथी अने आकाश नी संकड़ामण पण थती नथी. मूलम् - यथाऽनगन्धादिकवस्तुसत्ता,ज्ञया नसा नैव दृशाभिदृश्या । एवं निमोदात्मभृतोऽपिजैन-वाक्याद्विबोध्यामनसानवीक्ष्याः।१८ गाथार्थ जेम अहीं गंधादिक वस्तुग्रो नाक थी जाणवा योग्य छे परन्तु अांख थी नहीं. तेम निगोदादि जीवो जिनवाणी थी मन वड़े जाणवा योग्य छे परन्तु आंख थी नहीं.