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( १८१ ) विवेचन:-पांचे इन्द्रियो ना विषयो अने मन ना विषयो अलग अलग होय छे जेमके स्पर्शेन्द्रिय नो विषय स्पर्श करवा योग्य वस्तु ने जाणवानो, रसेन्द्रिय नो विषय स्वाद करवा योग्य वस्तु ने जाणवानो, घ्राणेन्द्रिय नो विषय सुंघवा योग्य वस्तु ने जाणवानो, चक्षुरिन्द्रिय नो विषय जोवा योग्य वस्तु ने जाणवानो, श्रोत्रेन्द्रिय नो विषय सांभलवा योग्य वस्तु ने जाणवानो अने मन नो विषय विचारवा योग्य वस्तु ने जाणवानो होय छे. तेवीज रीते केटलाक पदार्थो ने केवली भगवंतो केवल ज्ञान वड़ेज जाणी शके छे अने केवल दर्शन बड़े जोई शके छे. तेज प्रमाणे जेम गंधादिक वस्तुनो नाक थी जाणी शकाय छे परन्तु आंख थी नहीं; तेम निगोद ना जीवो जिनवाणी थी-मन थी जाणवा योग्य छे, अांख थी नहीं. मूलम् : ते केवलज्ञानवता हि दृश्याः, यथा हि सर्वत्र रजोऽतिसूक्ष्मम् । उड्डीयमानंनचदृश्यतेऽक्षणा,नचापिराशिभवनेऽपिबोध्यम् ।१६। परं यदाछन्नशुषीनरश्मि-समुत्थवंशीत्रसरेणुरूपम् । प्रकाशयोगादभिवीक्ष्यतेतत दृश्यास्तथादिव्यदृशानिगोदाः।२०।
गाथार्श -तेप्रो केवल ज्ञानी थीज जोवा योग्य छे. जेम सर्वत्र रहेल अति सूक्ष्म रज उड़ती छती प्रांखो वड़े जोवाती