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( १६० ) ॥ अथ नवमोऽधिकारः ॥
ब्रह्म नु स्वरूप मूलम्:कि ब्रह्म सिद्धापरनामकीतितं, ध्येयं मुनिनामपि शुद्धचेतसाम् भवागवे यानवदेव योगिनो, जानन्तियन्मुक्तिगहंयियासवः ।। गाथार्थ :- ब्रह्म शु छ ? जेनुं सिद्ध एवं बीजं नाम छे. शुद्ध हृदय वाला मुनिप्रोने ध्यान करवा योग्य छः मुक्ति गृह मां जवानी इच्छा वालाओ जेने संसार रूप समुद्र मां वहागण समान जाणे छे. विवेचन:- हवे ब्रह्म ए शुछे ? एवो प्रश्न करनार ने ग्रंथकार श्री प्रत्युत्तर आपे छे के ब्रह्म नुं बीजुं नाम सिद्ध छे, ए प्रमाणे प्रसिद्ध छ; अथवा आत्मा नी शुद्ध अवस्था एज ब्रह्म नाम नुं तत्त्व छे. जे वस्तु मेलववी होय तेनुं निर्मल चित्ते अने एकाग्र पणे ध्यान करवाथी ते वस्तु नी प्राप्ति थाय छे, एटले आत्मा नी शुद्ध अवस्था प्राप्त करवा माटे निर्मल चित्त नी अने एकाग्रतानी जरूर पड़े छे. माटे मुनियो निर्मल चित्त बड़े अने एकाग्रपणे ब्रह्म नुं ध्यान करता होवा थी ते मुनियो ने ध्येय रूप छे. समुद्र मां मुसाफरी करनार ने वहाण नी अति आवश्यकता होय छे. तेम मुक्ति रूप गृह मां जवानी इच्छा वाला मुनियो ने संसार रूप समुद्र