________________
( १३० )
निर्दोषता निष्क्रियता च तद्व-ज्जितेन्द्रियत्वं च समानभावः । इत्यादिकायैयदितस्यप्रीति- रेष्वेदसिद्ध तदिहाक्रियत्वम् । २६ ।
थार्थ:- जो आ जीवो तेमनाज अंशो होय तो विना कष्टे पोतानी पासे तेमने लई लेवा जोइये. जो तेमनी प्राप्ति माटे निरन्तर निरागता, निस्पृहता, निद्वेषता, निष्क्रियता, जितेन्द्रिय पर अने समभाव नी जरूर होय तो ते वस्तु प्रत्ये ब्रह्म नी प्रीति छे, एम जररंगाय छे, एटले ब्रह्म मां निष्क्रियतादि छे सिद्ध थाय छे.
विवेचन :- संसार मां प्राणियो ब्रह्म ने मेलववा माटे निरोग पशु, निस्पृह पर, निद्व ेष पर इन्द्रिय दमन पर अने सम भाव नी आवश्यकता होय छे; कारण के ब्रह्म ने आटली वस्तु प्रत्ये प्रेम छे. निरागता आदि प्राप्त करवा माटे ब्रह्मनी प्राप्ति इच्छनार ने घरगुज कष्ट करवुं पड़े छे तो प्रश्न ए थाय छे के संसार ना जीवो जो ब्रह्म ना अंश होय तो ब्रह्म तेमने विना कष्टे पोतानीपासे केम लई जतो नथी ? अने तेमने ब्रह्म ना ध्यान नी शी जरूर पड़े ? माटे जगत ना जीवो ब्रह्म ना अंशो नथी एम नक्की थाय छे. वली निष्क्रियता आदि प्रत्ये ब्रह्म ने प्रीति होवाथी ब्रह्म निष्क्रिय छे एम सिद्ध थाय छे. एटले ब्रह्म मां जगत कर्त्ता पर घटतु नथी.