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( १४२ ) आद्यो योश्च द्गतिरस्ति तहि,
मध्यस्थजन्तोरपि साऽरतु काचित् ॥४६॥ गाथार्थ:-संसार मां दरेक पदार्थो नी त्रण दशा होय छेसेवक, असेवक अने मध्य प्रथम बन्ने नी गति होय तो मध्य नी कई गति ?
विवेचन:-संसार मां दरेक पदार्थ नी त्रण गति होय छे. तेम जीवो ना पण त्रण प्रकार होय छे--सेवक, असेवक अने मध्यम. तेमनी त्रण प्रकार नी दशा होय छे. तेम तमारा कहेवा मुजब ईश्वर ने ध्यान करनार सुखी थाय छे अने ईश्वर नी निन्दा करनार दुःखी थाय छे परन्तु जे ईश्वर नी निन्दा पण करतो नथी अने ईश्वर नु ध्यान पण करतो नथी तेनी एटले मध्यस्थ नी कई गति थाय.
मूलम् - अस्यापि काचिनियता गतिः
स्या-दस्यागतेस्तहि च कोऽस्ति कर्ता ? । तहाँति वाच्यं सुखदुःखमुख्यं,
यथा कृतं कर्म तथैव लभ्यम् ॥४७॥ गाथार्थ:- एनी पण कोई नियत गति होय तो पूर्व कहेल तेनी गति नो कर्त्ता कोण ? तो कहेवु पड़े के तेणे जेवा