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( १२७ ) मूलम् - प्रथस्वाभावादथकालतोवा,सृष्टिघ्नतोनास्तिविभोरधाप्तिः । स्वभावकालौयदिचेदबलिष्ठौ,ब्रह्माप्यशस्तेनुदतःक्षयेऽस्मिन् २४ एतौ तदेवात्र च हेतु भूतौ,कि ब्रह्मरणा युक्त्यसहेन कार्यम् । तद्ब्रह्मणःसृष्टिविधितथैव, संहारकत्वं च वदन्ति ये तैः २५ न ब्रह्ममहिमा प्रकटीकृतः किं, निर्दूषणे दूषणमादधे यत् । वन्ध्याममाम्बेतिसमंनिगद्यते,यनिष्क्रियंब्रह्मनिगध कत्रिति २६ गाथार्थः-स्वभाव अथवा कालनी प्रेरणा थी सष्टि ने हणतां ईश्वर ने पाप लागतुन होय अने सृष्टि संहार मां ब्रह्माने ते बे प्रेरणा करता होय तो स्वभाव अने कालने कारण भूत गणो. युक्ति मां न घटे तेवा ब्रह्मनु शु प्रयोजन ? सृष्टि सृजन अने सृष्टि संहार मां कारण भूत ब्रह्म ने कहे छे ते प्रो ब्रह्मनो महिमा प्रगट नथी करतो, परन्तु निर्दोष एवा ब्रह्म मां दोष आपे छे. ब्रह्म ने निष्क्रिय कहीने ब्रह्म ने जगत-कर्ता तरीके कहेवुएटले मारां माता वंध्या छ एम कहेवा बरोबर छे. विवेचनः- ब्रह्मवादिलो हवे एम कहे छे के स्वभाव अने काल नी प्रेरणा थी सृष्टि ने हणतां ब्रह्मने पाप लागतु नथी. तेना प्रत्युत्तर मां जणाववानु के एक माणसे कोई नी प्रेरणा थी खून क्यु-हवे ज्यारे न्यायालय मां तेने खड़ो करवामां आवे अने त्यां न्यायाधीश नी आगल तेने पूछवामां