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मूलम् - निशम्यतामार्य ! मनीषिरणामपि,
सिद्धान्त वेदान्तविचार वेदिनाम् ।
स्वरूपमेतस्य निवेदितुं यतो,
वाचः स्फुरन्तीह न चर्मचक्षुषाम् ||२||
गाथार्थः- हे आर्य ! सांभलो. सिद्धान्त ज्ञान ना रहस्य ना विचार ने जाणनार विद्वान् पुरुषोनी वारणी एनु स्वरूप कवाने स्फुरायमान थाय छे, परन्तु ए बाबतमां चर्म चक्षु वाला कहेवाने समर्थ नथी.
विवेचन :- जगतमां बधा पदार्थों चर्म चक्षु वाला जोई परण शकता नथी ने जारणी पण शकता नथी. मात्र केटलाकज पदार्थों चर्म चक्षु वाला जोई शके छे अने जाणी शके छे. बधा पदार्थो तो फक्त केवलज्ञानी प्रोज जोई शके छे अने जाणी शके छे. तेम पर ब्रह्म पण चर्म चक्षुवालाओ जोई शकता नथी. ने जारणी शकता नथी. ते पण केवली भगवंतोज जोई शके छे अने जारणी शके छे अर्थात् सिद्धान्त ना रहस्य ने जाणनार पुरुषो जैन आगम अनुसार तेनु स्वरूप कहेवाने समर्थ थाय छे परन्तु चर्म चक्षु वालाग्रो तेना स्वरूप ने कहेवाने समर्थ नथी.