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( १०१ ) सर्वज्ञवाक्यात् किल मुक्तिमार्गको,
वहन सदास्ते करकस्य नालवत् ॥१॥ नो पूर्यते मुक्तिरसौ कदापि,
संसार एषोऽपि च भव्यशून्यः । परस्पर षिवचो विलास
नं सङ्गति मङ्गति वाक्यमेतत् ॥२॥
गाथार्थ-पोताना ज्ञान माटे सिद्धो सम्बन्धी एक प्रश्न पूछाय छे के सर्वज्ञना वचन थी मुक्ति नो मार्ग करनाल ना प्रवाह नी जेम हमेशां चालू छे, छतां मुक्ति नु स्थान पूरातू नथी अने संसार भव्यो थी शून्य थतो नथी-तो पा वचनो परस्पर विरुद्ध अर्थसूचक नथी लागतां ? विवेचन. केटलाक प्रश्नो एवा पूछाय छे के जेमां परस्पर वितंडावाद ऊभो थाय छे अने तेनु खास फल कइं पण आवतु नथी. उलटी द्वष-बुद्धि पैदा थाय छे. परन्तु जिज्ञासा बुद्धि थी पूछाता प्रश्नो परस्पर तत्त्वनी वृद्धि करनारा बनें छे. अहियां पण प्रश्नकार पोताना आत्मज्ञान नी प्राप्ति माटे सिद्ध भगवंतों सम्बन्धी प्रश्न पूछतां कहे छे के जैन पागम मुजब परम तारक अनंत ज्ञानी वीतराग परमात्मा श्रीमद् अरिहंत भगवंते स्थापन करेल सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, अने सम्यग् चारित्र रूप मोक्ष नो मार्ग अनादि काल