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ते अवस्था मां तेने कान नु सुख नथी, कोई क्रिया पण तेनी जोवाती नथी तो पण सूतेला मनुष्य ने सुख छे तेम बन्ने प्रकार नी इन्द्रियो थी उत्पत्र थयेला भोग विना पण ज्ञान वाला सिद्धो ने सुख होय छे. अथवा पोताना आत्मबोध रूपी अमृत पान करतो छतो योगी पोताने सुखी माने छे. तेमज संसार मां स्वज्ञान रूप अमृत पान करी, संतोष थी पुष्ट बनेल अने जीतेन्द्रिय एवा मुनि ने बीजो कोई पुरुष पूछे के तू केवा प्रकार नो सुखी छे ? त्यारे ते मुनि कहे छे के हु सुखी छु. ते समये तेने कोई पण वस्तु नो स्पर्श नथी, भोग नो सम्बन्ध नथो, गंध नु ग्रहण करवू नथी, दर्शन के श्रवण नथी अने हाथ-पग आदि नी कोई क्रिया पण नथी. तो पण संतोषी मुनि पोताने सुखी कहे छे, कारण के पूर्व कहेल ज्ञान द्वाराज पोते सुख नो अनुभव करे छे अर्थात् ज्ञान द्वाराज सुखी होय छे. अज्ञानी अात्माते कहेवाने समर्थ नथी.
विवेचन- दुःख त्रण प्रकार नु छे-पाधि, व्याधि अने उपाधि नु. आधि एटले मन नु दुःख, व्याधि एटले शरीर नु दुःख अर्थात रोग विगेरे नु अने उपाधि एटले धन कुटुम्ब आदि नदुःख. रोग अने उपाधि संबंधी दुःखो होवा छताँ पण मन पर वधारे आधार छे. बत्रे प्रकार