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अध्याय तीसरा।
व्यापार करनेकी रीतियां बताते रहते हैं, जो उनके मगज़में जम जाती हैं । यद्यपि उनमें यह दोष अवश्य होता है कि वे और ऊंची शिक्षा अपने पुत्रोंको देते ही नहीं । व्यापारी शिक्षाके साथ - साथ उनको दिनमें २ व ३ घंटे अच्छे शिक्षक द्वारा साहित्य, नीति व धर्मकी शिक्षा अवश्य दिलानी चाहिये । जहाँ तक देखा गया है जो बालक अपने १० व १५ वर्ष स्कूलकी संगतिमें विताते हुए विश्व विद्यालयकी परीक्षाओंमें उत्तीर्ण होनेके झंझटमें लगनाते हैं वे फिर अपने मनको देशी व्यापारकी ओर नहीं झुका सक्ते । फिर व्यापारकी ओर झुकना उनके लिये कठिन हो जाता है यद्यपि असंभव नहीं है। . हीराचंदका चित्त व्यापारमें लग गया और यह भी पिताकी
भांति अफीमका व्यापार करने लगे। थोड़े हीराचंदजीका स्वभाव दिनों बाद वखतचंद भी पिताके साथ व्यापार
को जाने लगे पर इनका मन जैसे पढ़ने में कम लगता था वैसे व्यापार में भी न लगा । इनको बाजारकी मिठाई खाने व मेले तमाशे देखनेका अधिक शाक था जब कि हीराचंद अपने पिताकी भांति शुरूसे ही विवेक बुद्धि थे। माता जो घरमें शुद्ध भोजन व मिठाई पकवान बनाती थी उसीको लेकर संतोषी रहते थे। मेले ठेलेका भी शौक न था । सवेरे शाम साधारण धर्म ध्यान में चित्त लगाकर आनन्दित रहते थे।
गुमानजीको इस बातका अवश्य विश्वास था कि बाल्यावस्थामें "विवाह करना बहुत हानिकारक होता है । जब तक पकवीर्य न हो तब तक विवाहका ख्याल भी पुत्रके दिलमें नहीं आना चाहिये
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