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दानवीरका स्वर्गवास |
अध्याय तेरहवाँ ।
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दानवीरका स्वर्गवास ।
गुजराती आषाढ वदी ९ ( मारवाड़ी श्रावण बढी ९) वीर सं० २४४० विक्रम संवत् १९७० ता०
श्रवण वदी ९ की १६ जुलाई १९१४ बृहस्पतिवार की रात्रि बड़ी भयानक थी कि जब चौराटीका जीता
भयानक रात्रि |
परम
जागता बंगला महान् दीपक के बुझ जाने से अंधकारमय हो गया । देखते देखते बिना किसीके दिलमें पहले से इस बात का खयाल भी आए हुए और बिना किसी महान् कटके सेठ माणिकचंदजीका चेतन स्वरूप आत्मा ६२ वर्ष तक औदारिक शरीरकी झोंपड़ी में रहकर अपने सुकृतमयी जीवनमें महा शुभ कर्म वर्गणाओंका बंधकर तैजस और कार्माण शरीरको लिये हुए किसी बैकिक शुभ शरीर में प्राप्त होकर अपने तन, मन, धनके निःस्वार्थपने दान करनेके महान् फल स्वरूप मनको सातादायक
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शुभ सामग्रीका लाभ लेता हुआ उस शरीर में अमररूप या दीर्घकाल स्थायी हो गया । यह नियम है कि जैसा भाव अंत समय में होता है वैसा ही पर्याय में जाता है । नर्क और तिर्थचगतिमें ले जानेवाला रौद्र और आर्तध्यान होता है जो हिंसानंद मृपानंद, चौर्यानंद, परिग्रहानन्द तथा इष्ट वियोगज, अनिष्ट संयोगज, पीड़ा चिन्तवन, व निदान रूप होता है । तो यह कोई ध्यान सेट माणिकचन्दजीको न था । परोपकारता, धर्म व जातिकी अवस्था की उन्नति, छात्रों का
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