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७८८ ] अध्याय तरहवां। कल्याण, उनको धर्म विद्याका लाभ, श्री शिखरजी पर्वतकी रक्षा व पशुओंकी दया इत्यादिमें से कोई न कोई भाव होगा जिसमें सेठजीका मन अटक रहा हो व केवल पंच परमेष्ठी या श्री अरहंतके स्वरूप में लगा हो यही संभव हो सकता है। यह सब धर्मध्यान है। सेठजीको जैन धर्मका पक्का श्रद्धान था। श्रद्धाकी नीवपर जमा हुआ धर्म ध्यान शुभ लेश्यारूप होता है और नियमसे देव पर्यायमें पहुंचाता है। जैन सिद्धान्तानुसार सेठनीकी अंतिम चेष्टा अवश्य इस बातका विश्वास दिलाती है कि दानवीरका आत्मा स्वर्ग में पधार कर उत्तम देव हुआ हो । वास्तवमें ऐसे महान् पुरुष जो परके कल्याण निमित्त अपने आपको बलिदान करते हैं और जगतके अज्ञान और अधर्म मेटनेका उद्यम करते हैं, परम्पराय तीर्थकर ऐसे महान् पदके अधिकारी होते हैं। सिद्धान्त कहता है कि इस पंचमकालके जन्मे १२३ मनुष्य इस क्षेत्रसे सीधे विदेह क्षेत्रमें जन्म प्राप्त करके उसी भवसे मोक्षको प्राप्त करेंगे। यह पंचमकाल या दुखमाकाल २१००० बर्षका है। इसके तीन २ हजारके ७ भाग किये जावे सो पहले ३००० वर्षके काल विभागमें ६४, दूसरे में ३२, तीसरेमें १२, चौथ में ८, पांचवे में ४, उठेमें २ तथा अंतिम ७ वें तीन हजार में एक मनुष्य इस भरतक्षेत्रसे सीधे विदेहमें जन्म ले कर्म काट परमानन्दमई सिद्ध होवेंगे । वर्तमानमें अभी यहां पहला भाग ही वर्त्त रहा है। अब श्री महावीरस्वामी मोक्ष पधारे थे तब चौथे दुःखमा सुखमा कालके तीन वर्ष साढ़े आठ महीने बाकी रहे थे । वीर सं. २४४० में २४३६ वर्ष साढ़े तीन महीने ही पंचमकालको.
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