Book Title: Danvir Manikchandra
Author(s): Mulchand Kishandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 982
________________ दानवीरका स्वगवार्स। भाग दे गये हैं, परन्तु उसमें साफ शब्दोंमें लिख गये हैं कि इसमेंसे एक पैसा भी मुकदमों में न लगाया जाय इससे सिर्फ तीर्थोका प्रबन्ध सुधारा जाय। जैनग्रन्थोंके छपाने और उनके प्रचार करनेके लिए सेठजीने बहुत उद्योग किया था। यद्यपि स्वयं आपने बहुत कम पुस्तकें छपाई हैं; परन्तु पुस्तकप्रकाशकोंको आपने खूब नी खोलकर सहायता दी है । उन दिनोंमें जब छपे हुए ग्रन्थोंकी बहुत कम विक्री होती थी, तब सेठजी प्रत्येक छपी हुई पुस्तककी डेड़ डेड़ सौ, दो दो सौ प्रतिया एक साथ खरीद लिया करते थे जिससे प्रकाशकोंको बहुत बड़ी सहायता मिलती थी। इसके लिए आपने अपने चौपाटीके चैत्यालयमें एक पुस्तकालय खोल रक्खा था-उसके द्वारा आप स्वयं पुस्तकोंकी विक्री करते थे और इस काममें आप अपनी किसी तरहकी बेइज्जती न समझते थे। जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय तो आपका बहुत ही उपकृत है। यदि आपकी सहायता न होती, तो आन वह वर्तमान स्वरूपको शायद ही प्राप्त कर सकता। आप छापेके प्रचारके कट्टर पक्षपाती थे; परन्तु इसके लिए लड़ाई झगड़ा खण्डन मण्डन आपको बिलकुल ही पसन्द न था । जिन दिनों अखबारों में छापेकी चर्चा चलती थी, उन दिनों आप हमें अक्सर समझाते थे कि " भाई तुम व्यर्थ ही क्यों लड़ते हो ! अपना काम किये जाओ-जो शक्ति लड़ने में लगाते हो, वह इसमें लगाओ, तुम्हें सफलता प्राप्त होगी-सारा विरोध शान्त हो जायगा।" सेठजीके कामों को देखकर आश्चर्य होता है कि एक साधारण पढ़े लिखे धनिक पर नये जमानेका और उसके अनुसार काम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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