Book Title: Danvir Manikchandra
Author(s): Mulchand Kishandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 981
________________ ८८४ ] अध्याय तेरहवां | संस्कृत पाठशालाओं की पढ़ाईका पुराना ढचरा तथा उनके प्रबन्धकी कठिनाइयाँ आपको इस ओर प्रवृत्त न होने देती थीं। तो भी आप संस्कृत के लिए बहुत कुछ कर गये हैं । बनारस की स्याद्वाद - पाठशालाने आपके ही लगातार उद्योगसे चिरस्थायिनी संस्थाका रूप धारण किया है, आपके बोर्डिग स्कूलों में वे विद्यार्थी प्रथम स्थान पोते हैं जिनकी दूसरी भाषा संस्कृत रहती है और संस्कृत के कई विद्यार्थियों को आपकी ओरसे स्कालरशिप भी मिलती हैं । अपने पिछले दानमें बे जैनपरीक्षालयको स्थायी बना गये हैं । उक्त दानका और भी बहुत अंश संस्कृत की उन्नतिमें लगेगा | 1 सेठजी बड़े ही उदार हृदय थे । आम्नाय और सम्प्रदायों की शोचनीय संकीर्णता उनमें न थी । उन्हें अपना दिगम्बर सम्प्रदाय प्यारा था, परन्तु साथ ही श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोगों से भी उन्हें कम प्रेम न था । वे यद्यपि बीसपंथी थे, पर तेरहपंथियों को अपने से जुदा न समझते थे । उनके बम्बई के बोर्डिग स्कूल में सैकड़ों श्वेताम्री और स्थानकवासी विद्यार्थियोंने रह कर लाम उठाया है । एक स्थानकवासी विद्यार्थीको उन्होंने विलायत जानेके लिए अच्छी सहायता दी थी। उनकी सुप्रसिद्ध धर्मशाला हीराबाग में निरामिषभोजी हिन्दूमात्रको स्थान दिया जाता है। साम्प्रदायिक और धार्मिक लड़ाईयों से उन्हें बहुत घृणा थी। उनकी प्रकृति बड़ी ही शान्तिप्रिय थी । पाठक पूछेंगे कि यदि ऐसा था तो वे मुकद्दमें बाजी - में सिद्धहस्त रहनेवाली तीर्थक्षेत्र कमेटीके महामंत्री क्यों थे? इसका उत्तर यह है कि वे इस कार्यको लाचार होकर करते थे ।.... अपने ढाई लाखके अन्तिम दानपत्र में वे तीर्थक्षेत्रोंकी रक्षा के लिए For Personal & Private Use Only Jain Education International ॐ १०० www.jainelibrary.org

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