Book Title: Danvir Manikchandra
Author(s): Mulchand Kishandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

Previous | Next

Page 945
________________ ८४८ ] अध्याय तेरहवां । दिगम्बर कोमने आखा गुजरातमां ओळखावनार अग्रगण्य दानवीर जैनकुलभूषण श्रीमान शेठ माणेकचंद हीराचंद जे. पी. ना अवसानने लीधेन छे. अवसान समय व्यतीत थयो, तोपण ते विषेनो विचार करीए छिए, तो आपणुं हृदय एकाएक विदीर्ण थाय छे. सन्ध्याकाळ पछी रात्रि पडवाना समये ज्यारे एकाएक मेवयूथ च्हडी आववाथी तेन:पूंन नष्ट थाय छे अने बधे शून्य निरव अने शमशमाकार लागे छे, तेम आजे पण जैन को ना आगेवान श्रीना स्वर्गपन्थ तरफ रखाना थतां जे शोके आपणा हृदयने घेरी लीयो छे तेथी खरेखर आनन्द रूप तेज:पुंज आजे आपणामांथी नष्ट थयुं छे. हा! आजे ते पुण्यात्मा अने परोपकारीना गुण स्मरण थई आवतां हुं बोलवा कंइ प्रयास करूं छु के तरतन हृदय एकाएक कम्पवा लागे छे. मन जाणे के बेशुद्धिमां पडयुं न होय एम लागे छे अने कण्ठ पण बाप्प • कलुषित थई जाय छे. हा ! आ बनावे आपणा हृदयाकाशने घेरी लई जे आपणा मनना तरंगोमा विकृति उत्पन्न करी छे, ते हवे आपणा उद्गार रूपे कोना आगळ ढोळीशु? हा, प्रभो ! आ हृदय स्वार्थने लीधे एटटुं बg कठण थई गयुं छे ते फाटीने चुरा थई जतुं नथी. __अहा महात्मन् ! आखरे ए मधुर! ए दयानी खाण परोपकारी जीवडो! अनन्त विश्वनी अपरिमित लीलामां जीवननुं ट्रंकुं प्रयाण आदरी आपज्योति रूपे सूर्य लोकना पडदा भेदी परमपूराण विमुना अलौकिक धाममां विरमो छो. प्रेमाळ सात्विक तेजथी भर्या नयनो आ फानी दुनीयामांथी हमेशने माटे उडी गयां. आ विचार हृदयभेदक छे. हे कुलभूषण! आप आ स्थळनो त्याग करी दिव्य प्रदे. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 943 944 945 946 947 948 949 950 951 952 953 954 955 956 957 958 959 960 961 962 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001 1002 1003 1004 1005 1006 1007 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016