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अध्याय तेरहवां । (१) धार्मिक विद्याने साथ २ इंग्रेजी आदि लौकिक विद्याओंका
अभ्याप्त करना और इसीलिये आपके जीवन में इतने स्थानोंमें छात्राश्रम खुल गए । जैसे-बम्बई, अहमदाबाद, रतलाम, इन्दौर, बड़वाया, बड़वानी, जबलपुर, ललितपुर, वर्धा, अकोला, नागपुर, कटनी, अलाहाबाद, विजनौर, मेरठ, आगरा, लाहौर, कोल्हापुर, हुवली, सांगली, बेलगांव, मैसुर, कारकल, मंगलोर तथा सारे भारतके जैनछा
त्रों को स्कालरशिप देकर उनका पढ़ना आगे जारी करना । (५) संस्कृत दिगम्बर जैन साहित्यका प्रचार करना ।
इसके लिये आपने बम्बई तथा काशी में संस्कृत विद्यालय खुलवाया व ग्रंथोंके मुद्रणमें पं. पन्नालालजी, नाथूरामजी आदिको सहायता दी व इनके द्वारा पुण्याश्रय कथाकोश आदि ग्रंथोंको प्रकाश कराया व स्वयं पुस्तकालय रख कर अर्ध मूल्यमें व भेट रूप पुस्तकोंका
प्रचार किया। (३) तीर्थोका उद्धार व सुप्रबन्ध कराना । सेठजीके प्रयत्नके
पूर्व तीर्थोपर बहुत अन्धेर था । यात्रियोंको बहुत कष्ट होता था । हिसाबादि ठीक नहीं रहता था, सेठजीके प्रभावसे प्रायः सर्व ही तीर्थों का प्रबन्ध ठीक हो गया व उनकी उन्नति भी हुई। जगह २ धर्मशालाएं बनी। हिसाब वार्षिक प्रकट होने लगा। तीर्थोके सुधार में आपके
जैसा परिश्रमी विरला ही होगा। मुख्यतासे पालीताना, तारंगा, आबू, गिरनार, राज
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