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अध्याय तेरहवां ।
बह सेठ माणिकचंद हीराचंद जे. पी. है नहीं । वह बीर दानी जैन कुलभूषण कहीं दिखता नहीं ॥ ४ ॥ चववीससो चालीस श्रावण कृष्ण नवमी दुःखमई । जिस रैन माणिकचद विछुड़े हा ! दियो क्या दुःख दई ॥ ५ ॥ वह अंधकी थी लाकड़ी अरु रंककी पूंजी हुती ।
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धर्म जाती उन्नतीके कुलुनकी कुंनी हुती ॥ ६ ॥ घाटा अरब दीनारका श्रीमान् कुछ गिनते नहीं । पर एक कौड़ी रंक खोकर दुःख सह सक्ते नहीं ॥ ७ ॥ वे शिर उठा देखें जहां दिखता वही अंधयार है । अघ खोई लाकड़ी हा ! दुःखका क्या पार है ॥ ८ ॥ शोक भू फटती नहीं जाते समा उसमें कहीं । दुर्दैव प्रेरित जनों अब आश्रय दिखता नहीं ॥ ९ ॥ आश्रय जिमका जहां जब दीन जैनोंने लिया । आनकर पीछा किया ॥ १० ॥ कार्य जिसको सौंपकर
तब काल निर्दयीने वहां ही उन्नती जात्यरु धर्मके कुल सो रहे थे जैन सारे हिन्दुके हो वे फेकरे ॥ ११ ॥ तब काल रक्षक पुरुषको ले गया इकला पायकर । सोते हुए ये लुट गये हे नाथ ! इनहिं सहाय कर ॥ १२ ॥ यह वज्रपात हुआ अचानक हाय प्रभु अब क्या करें | सच्चा हितैषी रतन खोकर किस तरह धीरज
धेरै ॥ १३ ॥
पर रुके नहीं होनी कभी होत अन - यह जानकर धीरज घरो जो उपजता अरु शोक क्या है सेठका वे सुख शांति पायेंगे ।
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होनी
नहीं ।
विनशे वही ॥ १४ ॥
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