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अध्याय ग्यारहवां ।
चढ़चले सुगम पद धरे मोक्ष वस्तीको ॥ पहुंचे शिव तियको मिले तजे हस्तीको ॥ १४ ॥ यह छन्द अघहन दो चौ त्रय छेमें गाये ॥ बदि पंदरस परथम सांज मगमे उपजाये ||
मन वचन शुचिकरि जो नरनारी गावे ॥ सुखोदधिमें डूब सब चित्त विकार मिटावे ॥
सवेरे शोलापुर पहुंचे । सेठ हीराचंद नेमचंद के मकानपर ठहरे। यहां श्रीमती कंकुबाईजीको ही पहले यह खबर हुई थी और शोलापुर में किसीने नहीं जाना ।
मगसर वदी १ के दिन शहरके बाहर एक बड़ा भारी मंडप बनाया गया तथा श्री जिनेन्द्रदेवकी प्रतिबिम्ब रथद्वारा लाकर अलग मंडप में विराजमान की गई थी। ८ बजे सवेरे ही १५००० नर नारी अपने स्थानपर बैठ गए थे । इनके बिठाने व शांत करनेको शोलापुर के सेठोंके पुत्र नवयुवक वालन्टियर होकर चारों ओर खड़े थे । जिससे सब चुप और शांत थे प्रबन्ध बहुत अच्छा था । ऐलकजी महाराज उच्च आसनपर एक पत्थरशिला पर पद्मासन विराजमान हुए । प्रथम भजन हुए, फिर शोलापुर पाठशाला के एक विद्यार्थीने पंडित सदासुखजी कृत सोलह कारण भावनामेंसे शक्तिस्ता नामकी भावनाको मराठीमें बडी ही शांतितासे सुनाया । सेठ जीवराज गौतम केशलोंच की महिमा सूचक छा पत्र पढ़ा, जो वितीर्ण किया गया था । सेठ हीराचंद नेमचंदजीने ११ प्रतिमाओंका स्वरूप, केशलोंच की महिमा और विद्यादानकी सर्वोत्कृष्टता बताई। फिर ऐलक महाराजने मनुष्यजन्मकी दुर्लभता बताते हुए शीलव्रत धारने व दान धर्म करनेका उपदेश दिया । तब बहुतोंने परस्त्री त्याग व्रत लिया व
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