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अध्याय ग्यारहवां । जिनवरके धर्म बिन ग्रहे सुमग न लखावे ॥ सुख समुद्र है जिन धर्म, भव्य नित न्हावे ॥ ३ ॥
(४) एकत्व भावना । इकले ही जन्मे मरे कर्म फल भोगे इकलो रोवे दुःख लहै पापके जोगे ॥ जब मरे छोड़ सब साथ एकलो जावे ॥ एकाकी आतम सत्य सुधी मन ध्यावे !! ४ ॥
(५) अन्यत्व भावना । हैं स्वारथके सब सगे पुत्र तिय जननी ॥ . बिन टके न पूछे कोय नार मित सजनी ॥ है अन्यं अन्य सब जीव-अणु पुद्गलका ॥ पर मोह छोड लेले तू आसरा निजका ॥ ५ ॥
(६) अशुचित्व भावना । है देह अपावन जगको अपावन करती ॥ मलसे बनकर नवद्वारोंसे मल स्रवती ॥ जिन कीनी यासे प्रीति ठगे जाते हैं ॥ जिन जाना पावन आप मुक्ति पाते हैं ॥ ६ ॥
(७) आश्रव भावना । मन बचन कायका हलन चलन दुखकारी ॥ कर्माश्रव होवे बनें पीजरा भारी ॥ कोई पाप ढेर कोई पुण्य ढेर जोड़े हैं । करे दोनों जो चकचूर स्वफल तोड़े हैं ॥ ७ ॥
(८) संवर भावना । संवर सुबीरने संजम शस्त्र उठाया ॥
आश्रव चोरोंका गृह प्रवेश रुकवाया ॥ समिति गुप्ति दश धर्मके ताले लगाये संतोषसे घरमें बैठ सु आनंद पाये ॥
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