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अध्याय ग्यारहवां |
फिर श्रावकाचारका स्वरूप ध्यानमें ले व देशकालको विचार यही निश्चय किया कि श्रावककी सातवीं प्रतिमा तकके नियमोंका अभ्यास करना चाहिये और उदासीन ब्रह्मचारी होजाना चाहिये । इस समय ऐलक पन्नालालजी सूरत में ठहरे हुए थे। शीतलप्रसादजी दूसरे दिन सूरत गये । एकांत में मिलके अपना हाल कहा व जो २ नियम धरने थे उनको महाराज के सामने लिख लिया - वस्त्र श्वेत व लाल चाहे जैसे उदासीन पहनो, प्रमाणकर द्रव्य रक्खो, तीन काल सामायिक करो, अष्टमी व चतुदर्शीको प्रोषधोपवास करो इत्यादि भोजन पान सम्बन्धी सर्व नियम ठीक कर लिये । उस समय भी शरीर कुछ अस्वस्थ था । ऐलकजीने आज्ञा की कि ब्रह्मचारी होकर शुद्ध भोजन करनेसे तुम्हारा शरीर बिलकुल अच्छा रहेगा । तुम कुछ चिन्ता न करो। शोलापुर के केशलोंच के समय तुम प्रगट रूपसे नियम धार लेना । इस तरह सर्व तरह चित्तकी समाधानी करके शीतलप्रसादजी बम्बई आए और अपना इरादा केवल एक श्रीमती मगनबाईजीसे बताया । बाईजी सदाही से शीतलप्रसाद के परिणामों को आत्महित में स्थिर करती रहती थीं। इस वक्त भी आपने कोई भी अंतरायकी वात नहीं की किन्तु यही कहा कि यदि तुम निर्वाह सको तो इससे बढ़कर दूसरा काम नहीं है । फिर बाईजीने ही उदासीन वस्त्रोंका नया सामान तयार कर दिया । इस बातकी खबर सेठ माणकचंदजीको
भी नहीं हुई ।
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