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६५६ ] अध्याय ग्यारहवां ।
चैत्र वदी १ ता० ३० मार्चको मस्तकाभिषेकका दिन था । कई सौ रुपया खर्चकर प्रवीण कारीगर द्वारा सीढ़ी ऊपर जानेको बनाई गई थी जिसपर खड़े होकर मस्तक पर धारा डाली जावे । तीन बजेसे अभिषेक प्रारंम हुआ। जिस जिसका जो कलश था वह नम्बरवार ऊपर जाकर चढ़ातो था । दर्शक लोग चारों ओर खड़े बैठे थे। पहले ही सेठ माणिकचंद पाटनवालोंने जल कलशकी धारा दी । वह धारा प्रभुके मस्तक परसे नीचे पग तक आती हुई महा शोभाको विस्तारती थी। फिर सेठ कस्तूरचंदने दूधका बड़ा घड़ा लेकर धारा छोड़ी। दूधके कई घड़े छोड़ने पर वह प्रतिमा श्वेतवर्ण निर्मल प्रति भासती हुई उस समय दर्शकों को जो आनन्द आया वह कथनसे बाहर है । प्रतिमाजीका दर्शन कोसोंसे होता था ! बस देखनेवाले दूर २ बैठे हुए अभिषेकका आनन्द ले रहे थे-भीड़ बहुत बड़ी थी-सेठ माणिकचंद और नवलचंद दोनों हरएक प्रबन्धमें लवलीन थे कि सानन्द अभिषेक हो जाय । रात्रिके २ बजे तक अभिषेकका कार्य पूर्ण हुआ। यह अभिषेक २२ वर्षके पीछे हुआ था।
दूसरे दिन सेठनीने पर्वतोपर क्या २ मरम्मत व सुधारकी जरूरत है सो वहांके लोगोंको दिखाई और कहा कि हम मिस्त्री भेजेंगे, आप सर्व ठीक करालेवें व इस फंडसे तीर्थकी उन्नति करें । अब यहांसे सेठजी बम्बई लौट गए। शीतलप्रसादजी, बाबू किरोडीचंद आदि आरावालोंके संघके साथ मूडविद्रीकी यात्राको चले गए। वहां श्री जयधवल महा धवलादि ग्रंथोंके दर्शन भी किये व उनकी बालबोध लिपिको पढ़कर भी आनन्द लिया। बाबू जुगमन्दिरलाल
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