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. अध्याय ग्यारहवां ।
ज्वरकी ऐसी बाधा रही कि बम्बईमें बहुत दवाई करनेपर भी वह दूर न हुई इससे यह लखनऊ गए । वहां १५ दिनमें ही ठीक हो गए । उसी बीचमें इनके मंझले भाई जो कलकत्तमें थे व जिन्होंने अपने उद्योगसे अनुमान एक लक्ष रुपये जवाहरातके काममें पैदा किया था सो लखनऊ आए। शीतलप्रसाद उनसे मिलकर बम्बईको लौटे। रास्ते में इनकी इच्छा अध्यात्मप्रेमी वीरसेन स्वामीसे कारंना जाकर मिलनेकी हुई। यह अकेले भुसावलसे कारंजा गये । वहां गंगादास देवीदास चौरे व प्रद्युम्नकुमारसे आत्मिक चर्चा करके बहुत आनन्द पाया। यहां स्वामी न थे। मालूम हुआ कि सिरपुर ( अंतरीक्ष ) के पास मालेगांवमें हैं। तुर्त वहां गए । तब ही अंतरीक्ष पार्श्वनाथजीके दर्शन किये। वहांसे स्वामी अकोलाकी तरफ चल दिये थे तब यह उसी तरफको आए। वहां मालूम हुआ कि बनारसको रवाना हो गए । तब यह निराश हो अकोलासे बम्बई आए । यहां बंगलेपर जाते ही लखनऊका तार मिला जो यहां पहले ही आ गया था कि अनन्तलालका बोल बंद हो गया जल्द आओ । विश्वास न होनेपर फिर तार किया। जवाब ताकीदीसे बुलानेका आया। फिर यह लखनऊ लौटे। जब यह पहुंचे अनन्तलालका आत्मा वहां न था। वह अन्यत्र जा चुका था शरीर भी स्मशानमें दग्ध हो चुका था ।
उदास मन उनकी स्त्री और एक छोटीसी कन्या सजीवित थी। मालूम हुआ कि लकवा यकायक गिरनेसे बोलना बंद हो गया। हाथ कांपता था इससे न तो कुछ बोल सकते और न लिख सकते थे। मन में इच्छा होती थी कि कुछ जायदादके विषयमें कहें व कुछ
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