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६५० ] अध्याय बारहवाँ। सेठ हीराचंद गुमानजी जैन बोर्डिगकी लिटरेरी सोसायटीकी
___ तरफसे ताः १४ मार्च सन् १९१० को बैरिष्टर जुगमन्दिरला- हीराबागमें सेठ गुलाबचंदनी ढढ्ढा एम. ए. के लजीका व्याख्यान । सभापतित्वमे एक बृहत् सभाका अधिवेशन
हुआ । सभापतिने आसन लेते वक्त यह कहा कि आजके व्याख्याता इतनी डिगरी प्राप्त करनेपर भी अपने धर्ममें दृढ़ रहे हैं। फिर व्याख्याता जुगमन्दिरलालजीने विद्यार्थियों के कर्तव्यपर अपना विद्वत्ता पूर्ण भाषण कहा उसमें यह बातें भी कहीं कि भारतवर्षकी प्राचीन कालकी शिक्षा में तीन बातें थीं-सादगी, सस्तापन और धीमापन-साद। भोजन, सादा आसन, सादी शय्या रहती थी । गुरुओंको फीस नहीं देती पड़ती थी सुगमतासे गुरुओंके पास विद्यार्थी हर समय प्रश्न कर सक्ता था । एक ही विषय बहुत धैर्यके साथ पढ़ा जाता था । आजकलकी भारतीय शिक्षामें तीनों का अभाव है । विलायतकी और यहांकी पढ़ाई में बहुत अंतर है। वहां शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों विषयों में पूरी २ शिक्षा दी जाती है। विलायत जानेसे जैन धर्म टूट जाता है ऐमा कहना ठीक नहीं है । विलायतमें आप जैन धर्म अच्छी तरहसे पालन कर सक्ते हैं। भक्ष्याभक्ष्यका विचार भी रख सक्ते हैं । मैं चार वर्ष विलायतमें रहा लेकिन मांसके एक अणुने भी मेरे उदर में प्रवेश नहीं किया । वहांपर शाक भोजी सोसायटी बढ़ती जाती है । सेठ जी को आपके व्याख्यानको सुनकर बड़ा ही हर्ष हुआ । बम्बईमें बाबू साहब सेठजीके पास ही ठहरे रहे । इस
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