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उच्च कुलमें जन्म
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इनका विवाह युवावस्थामें हुआ था और उसीके एक दो वर्ष बाद ही यह भींडरसे सुरत आकर रहने लगे थे ।
गुमानजीने सूरतमें जिस घरका आश्रय लिया था उसको छोड़ा नहीं । आपने और कोई घर भी नहीं बनवाया। उसी घरको उसके मालिकसे खरीद लिया और उसीमें आनन्दपूर्वक अपना जीवन विताया।
साह गुमानजीका अपने पुत्रोंके सम्बन्धमें यह विचार था कि यह धर्मके श्रद्धावान हों और अभिषेक पूजन जप व स्वाध्यायमें सावधान हों, कामके योग्य हिसाब किताब व लिखना पढ़ना कर सके और व्यापारमें कुशल हो जावें, अतएव घरके पास श्री बड़े जिन मंदिरजीमें जो पंडित रहते थे उनके पास स्तुति, दर्शन, भक्तामर
आदि पढ़वाते थे और दिनमें देशी पाठशालामें साधारण प्राथमिक शिक्षा लेने भेजते थे। जिस समयकी यह वात है उस समय प्रायः बालकोंको पढ़ानेका ऐसा ही कायदा था। धर्मका ज्ञान परोपकारार्थ देनेवाले कोई न कोई धर्मात्मा जिन मंदिरमें अवश्य तय्यार रहते थे। बहुतसे मंदिरों में पंडित या ब्रह्मचारी रहते थे जिनका पठन पाठन ही मुख्य काम होता था । हीराचंद बुद्धिके तीत्र, उत्साही और सुआ-. चरण व आज्ञापालनमें दक्ष थे जब कि वखतचंदकी बुद्धि मंद थी ।
थोड़े ही दिनोंमें जब हीराचंद हिसाब किताबमें पक्के हो गए तब गुमानजी इनको अपने साथ व्यापार सिखानेके लिये बाज़ारमें ले जाने लगे । वास्तवमें व्यापार भी विना सिखाये व विना उसमें बुद्धि प्रवेश किये नहीं आता है । प्रायः मारवाड़ी लोग व्यापारमें कुशल इसी कारण होते हैं कि उनके पिता उन्हें छोटी उमरसे ही
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