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अध्याय नवां । वह आत्मा अपने स्वाधीन स्वभावको नहीं पाता है तब तक इसका जन्म मरण नहीं मिटता है। आयु कर्मका प्रेरा यह जीव शरीरमें अपनी उम्रसे अधिक नहीं रह सक्ता ।
मिती कार्तिक वदी ११ संवत् १९६० की रात्रिको सेठ पानाचंद हीराचंदका शरीर अति अशक्त हो गया। तबियत तो कई दिन पहलेसे खराब थी। यथाविधि औषधि होती थी। इस समय सेठ माणिकचंद, नवलंचद, चुन्नीलाल, रूपाबाई, रुक्मणीबाई, मगनबाई आदि कुटुम्बी पास बैठे हैं, सेठ पानाचंद बराबर होशमें हैं, पंडित वंशीधर जो उस समय संस्कृत विद्यालय बम्बईके छात्र थे अब शोलापुर जैन पाठशालामें शास्त्री हैं, पास बैठे हुए समाधिमरण आदिके पाठ पढ़ रहे हैं, पानाचंदजी बड़े ध्यानसे सुन रहे हैं। माणिकचंदनीको इस समय यही ध्यान है कि भाईका मन किसी भी तरह आर्त रौद्र ध्यानमें नहीं फंसे, धर्म ध्यानमें लीन रहें जिसमें दुर्गतिसे बचकर सुगतिमें जावें इसलिये जब कभी उन्हें मालूम होता कि इनका ध्यान और तरफ हुआ है तब ही सेठ माणिकचंद यह वाक्य कहते-"भाई, पंडितजी कहते हैं उधर तुम्हारा ध्यान है ना ? तब वह धीरेसे कहते कि मेरा ध्यान है, बराबर चालू रक्खो। मिलकियनके विभागके समय धर्मशाला आदि कार्योंके निमित्त करीब २ लाखके दानका संकल्प हो ही चुका था। इस समय आपने कहा कि भाई, मेरी प्राइवेट मिलकियतमेंसे १५०००) वागड़ देशके हुमड़ छात्रोंमें विद्या प्रचारके लिये खर्च करना तथा १००) तीर्थ क्षेत्रोंमें देना। संठ माणिकचंदने तुर्त लिख लिया। सेठ माणिकचंदने कहा-भाई, और भी कुछ दान करना
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