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अध्याय दशवां ।
पत्रको तय्यार कराकर आरा भिजवा देते थे । यह पाक्षिक रूप में अक ५ दशम वर्ष ता० १६ जनवरी १९०६ तक निकला | फिर शीतलप्रसाद के खास उत्साह व परिश्रमको देखकर व देवकुमारजीकी हार्दिक इच्छा व मददको जानकर महासमाने इसको साप्ताहिक करनेका प्रस्ताव अम्बाला के अधिवेशन में पास किया उसके पीछे ही ता० १ फरवरी १९०९ से अंक नं०६ से साप्ताहिक रूपमें निकलने लगा और इस प्रकार यह पत्र लखनऊ में ता० ११ नवम्बर १९१० तक छपता रहा । जब इसके सम्पादक बाबू जुगलकिशोर देवबन्द हुए तब शीतलप्रसादका खास सम्बन्ध जैन गज़ट से छूट गया । शीतलप्रसाद के चित्तमें जबसे उनकी स्त्री माता व भाईका एक साथ मरण हुआ, संसारसे उदासी छा गई थी । यद्यपि दफ्तर रेलवेमें जाते थे पर मन त्यागके सन्मुख हो रहा था । जब ये दोनों बाइयां पूजन कर चुकी तब शीतलप्रसाद साहस करके उनका नाम ठिकाना आदि पूछने लगे । सेट माणिकचंद को यह अच्छी तरह जानते थे । जैनमित्र, जैनगज़ट में इनके कार्यों की महिमा के सिवाय मथुराके मेलेपर प्रत्यक्ष देखा था । यद्यपि उस समय वार्तालाप करनेका कोई अवसर नहीं मिला था यह जानकर कि यह सेठ माणिकचन्दजीकी पुत्री है, बाबू शीतलप्रसादको बड़ा हर्ष हुआ, तब श्रीमती मगनबाईजीने पूछा कि क्या यहां कोई श्राविका पढ़ी हुई हैं ? उस समय लखनऊमें श्रीमती पार्वतीचाईको शास्त्रका कुछ अभ्यास था व धर्मसे लग्न थी, उन्हीका नाम व पता बताया क्योंकि शीतलप्रसादको भोजन करके दफ्तर जाना था अतएव यह फिर मिलेंगे ऐसा कहकर चल
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