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अध्याय ग्यारहवां |
सेठजी मधुवन में तीर्थरक्षा में अनुरक्त थे कि ता० २६ को तार पाया कि सेठ चुन्नीलालका देहान्त -सेठजीको चुन्नीलाल- हुआ । सुनते ही आपको यकायक मूर्छा आ गई । जैसे किसीका दाहना हाथ टूटने से दुःख होता है ऐसा दुःख सेठजीको हुआ । थोड़ी देर में सचेत हुए, फिर भी शोक में बैठ
की मृत्युकी खबर ।
गए । आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी । सेठजीको यह शोक इस कारण से नहीं हुआ था कि वह इनके भानजे थे, पर शोकका
- कारण यह था कि तीर्थोकी रक्षामें व बम्बई प्रान्तिकसभा के कामों में जो अपूर्व सहायता प्राप्त होती थी वह बंद हो गई । शीतलप्रसादजी पास में ही थे । सेठजीको अनेक दृष्टांत देकर संसारकी असारता व शरीरकी क्षणभंगुरता समझाई तथा तीर्थभक्ति में निश्चल ठटे रहने की प्रेरणा की। सेठजी स्वयं भी विचारशील थे । अंतर्महूर्त ही क्लेशित परिणामी रहे फिर तुर्त सचेत होकर अपने उसी तीर्थभक्ति के काम में लग गए। किसीसे उस बातका वर्णन न किया, न कोई जान ही सका !
शिखरजी में ता० २६ को बीसपंथी कोठो में दिनके एक सभा लाला सुलतानसिंह दिल्ली के
।
शिखरजीवर लोर्ड सभापतित्वमें हुई जिसमें तीर्थक्षेत्र कमेटीद्वारा फ्रेज़रका आना । तयार किया हुआ मेमोरियल शीतलप्रसादजीनेसुनाकर मंजूर कराया और मेम्बरोंके लाट साहब के पास दूसरे दिन भेजा गया । मिलनेके लिये प्रतिनिधियोंकी एक नामा
दस्तखत से पहाड़ पर फिर लाट साहब से
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