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महती जातिसेवा द्वितीय भाग। [५९७ कहा कि धर्मशिक्षामें बालकोंको विशेष ध्यानकी जरूरत है। सम्पादक दि० जैनने बोर्डिंगके छात्रोंको जैनधर्मकी माहिती और नियम पोथी भेटमें दी। आसौन सुदी ११ ता० २५ अक्टूबर १९०९ सोमवारको
७॥ बजे बोर्डिंगके सामने एक मकानमें . श्राविकाश्रमकी दिगम्बर जैन श्राविकाश्रमकी स्थापनाका. स्थापना। महुर्त बम्बईकी परोपकारिणी सार्वजनिक
कामों में भाग लेनेवाली जमनाबाईजी सकईकी अध्यक्षतामें बड़ी धूमधामसे हुआ। तारंगाजीपर पाम हुए प्रस्तावके अनुसार अध्यापिका व उपदेशिका तय्यार करनेके लिये यह आश्रम खुला । इसमें धर्मशिक्षाके साथ उद्योग धंदा व लिखना वांचना सिखलाया जावेगा ऐमा विवेचन श्रीमती ललिताबाईने किया। प्रमुखाने आश्रम खोलते हुए कहा कि धर्म और नीतिकी ज्ञाता पवित्र माता बनानेसे ही इस आर्यभूमि में धर्मिष्ट और परोपकारी प्रना रत्न उत्पन्न होंगे । अज्ञान माताकी अज्ञान प्रजा देशको अधम बनावेंगी। श्रीमती जमनाबाईजीने अजैन होनेपर भी ५१) भेट किये । श्रीमती मगनबाईजीने सर्वका आभार माना । यद्यपि बम्बई में सेठ माणिकचंदजीने कुछ मकान अलग करके श्राविकाओंको परदेशसे आनेके लिये पत्रोंमें नोटिस सन् १९०६ में ही दिलाया था परन्तु उससे सिवाय एक इन्दौरकी आनंदीबाईजीके और कोई नहीं आ सकी । इस बाईको मगनबाईजीने अपने ही साथ रक्खा व छ: ढाला आदिका ज्ञान कराया । तब यह सलाह करके कि आश्रम ऐसे स्थानपर हो जहांसे विधवाएं सुगमतासे अपने देश भी जा सकें व
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