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अध्याय दशवां।
सबसे पहला लेख ता० २४ मई १८९६ के अंक २३ में छपा है जिसमें पंडितोंसे प्रार्थना की गई है कि____“ ऐ जैनी पंडितो, यह जैनधर्म आप ही के आधीन है । इसकी रक्षा कीजिये, द्योति फैलाइय, सोतोको जगाईथे और तन मन धनसे परोपकार और शुद्धाचारके लानेकी कोशिस कीजिये कि जिससे आपका यह लोक और परलोक दोनों सुधरे आदि "।
शीतलप्रसादके कुटुम्बकी कलकत्तेकी जैन बिरादरीमें बड़ी मान्यता थी। इसका कारण यह था कि इनके पूज्य पितामह लाला मंगलसैनजी संस्कृत और फारसीके विद्वान् होनेके सिवाय जैन धर्मके अच्छे मरमी थे। यह जैन मंदिरमें सभाका शास्त्र पढ़कर धर्मोपदेश देते थे । गोम्मटसार व समयसारकी चर्चाका अच्छा अभ्यास था । लखनउके शाहजीकी कोठीमें कोषाध्यक्ष थे। इनको गणितमें लीलावतीका अच्छा ज्ञान था। कभी २ इंग्रेन लोग गणितका प्रश्न हल करनेको इनके पास आते थे। शीतलप्रसादपर इनका बड़ा प्रेम था । कभी यह लखनऊ आते तव १० वर्षके बालकको अपने साथ श्री मंदिरजी ले जाकर जो शास्त्र आप पढ़ते सो बंचवाते थे। जैनगज़ट और महासभाके साथ शीतलप्रसादका यहां तक गाढ़ सम्बन्ध हो गया था कि जब यह कलकत्तेसे लखनऊ सन् १८९८ के अनुमान गए तबसे करीब २ प्रतिवर्ष ही श्री चौरासी मथुराके दर्शन किये और महासमामें शरीक हुए । जैनगज़ट पत्रपर अतिशय प्रेम था । बाबू बच्चूलाल प्रयागके देहान्त होनेपर जैनगजटका मुद्रित होना शीतलप्रसादके द्वारा लखनऊमें अंक १० सप्तम वर्ष ता० १ अप्रैल १९०२ से शुरू हुआ, तब यह पत्र पाक्षिक था। उस समय शीतलप्रसाद
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